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चतुस्त्रिंशः सर्गः
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इन्द्रवज्रावृत्तम् रूपान्तराः पञ्चदशावसाना रूपान्तराः षोडश यत्र चाग्रे। रूपोनकास्तत्परमन्तरूपाः मुक्तावलीयं खलु रत्नपूर्वा ॥७२।।
उपजातिवृत्तम् द्विशत्यशीतिश्चतुरुत्तराः स्युरत्रोपवासाः परिगण्यमानाः । एकोनषष्टिश्च हि भुक्तिकालाः फलं तु रत्नत्रयसारलब्धिः ।।७३।।
शार्दूलविक्रीडितम एको द्वौ च नव त्रिकाण्यपि ततश्चैकादिमिः षोडश
प्राज्ञैस्ते गणिताश्चतुस्विकयुतं त्रिंशस्त्रिकाण्येव तु । रत्नमुक्तावलीविधि-एक ऐसा प्रस्तार बनाया जावे जिसमें रूप अर्थात् एक-एकका अन्तर देते हुए एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंक लिखे जावें। उसके आगे एक-एकका अन्तर देकर सोलह लिखे जावें और उसके आगे एक-एकका अन्तर देते हुए एक-एक कम कर अन्तमें एक आ जावे
लिखे। इसमें प्रारम्भमें प्रथम अंकसे दसरा अंक लिखते समय बीचमें और अन्तमें दोसे प्रथम अंक लिखते समय बीचमें पुनरुक्त होनेके कारण एकका अन्तर नहीं देवे। इस व्रतमें सब अंकोंका जोड़ करनेपर दो सौ चौरासी उपवास और उनसठ पारणाएं होती हैं। उस उपवासमें तीन सौ तैंतालीस दिन लगते हैं। इसका फल रत्नत्रयकी प्राप्ति है। इसकी विधि यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा आदि ||७२-७३।।
कनकावलीविधि-जिसमें एकका अंक, दो का अंक, नौ बार तीनका अंक, फिर एकसे लेकर सोलह तकके अंक, फिर चौंतीस बार तीनके अंक, सोलहसे लेकर एक तकके अंक, नौ बार तीनके अंक तथा दो और एकका अंक लिखा जावे अर्थात् इस क्रमसे चार सौ चौंतीस उपवास और अठासी पारणाएं की जावें वह कनकावली व्रत है। लोकान्तिक देव पदकी प्राप्ति होना अथवा संसारका अन्तकर मोक्ष प्राप्त करना इस व्रतका फल है। इसका क्रम यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा आदि। इस व्रतके उपवासोंकी गणना निकालनेकी दूसरी विधि यह है कि एकसे लेकर सोलह तक दो बार संख्या लिखे और उसे आपसमें
रत्नमुक्तावलीयन्त्र -
१२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९११०१११११२११३ ११४११५ ११६ १११११११११११११११११११११११११ १ १ १ १ ११५११४११३ ११२१११११०१९१८१७१६१५१४ १३१२१ कनकावलीयन्त्र -
१ २ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९१० ११ १२ १३ १४ १५ १६ ३ ३
३ ३ ३ ३ ३ ३ ३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३ १११ ११ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३३३१६१५१४१३१२१११०९८७६ ५४३२१३३३३३३३ ३ ३ २.१
१. रूपान्तराख्यं च दशा ख. । २. -स्तद्गणिता म.।
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