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हरिवंशपुराणे
रथोद्धता मेरुषु प्रतिवनं तु षष्ठतः प्रत्यगारमदिता चतुर्थकान् ।
मेरुपङक्तिविधिरेषु मेरुषु प्रापयिष्यति महामिषेचनम् ॥८५।। प्रत्येक दधिमुखको लक्ष्य कर मनकी मलिनताको दूर करते हए चार उपवास करना चाहिए। एक-एक दिशामें आठ-आठ रतिकर हैं इसलिए प्रत्येक रतिकरको लक्ष्य कर आठ उपवास करना चाहिए । एक-एक दिशामें एक-एक अंजनगिरि है इसलिए उसे लक्ष्य कर एक बेला करना चाहिए। इस प्रकार एक दिशाके बारह उपवास एक बेला और तेरह पारणाएँ होती हैं। यह व्रत पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाके क्रमसे चारों दिशाओंमें करना चाहिए। इसमें अड़तालीस उपवास, चार बेला और बावन पारणाएं हैं। इस तरह यह व्रत एक सौ आठ दिनमें पूर्ण होता है। यह नन्दीश्वर व्रत अत्यन्त श्रेष्ठ है और जिनेन्द्र तथा चक्रवर्तीके करानेवाला है ।।८४||
__ मेरुपंक्तिव्रत विधि-जम्बूद्वीपका एक, धातकीखण्ड पूर्वदिशाका एक, धातकीखण्ड पश्चिम दिशाका एक, पुष्कराधं पूर्व दिशाका एक और पुष्करार्ध पश्चिम दिशाका एक इस प्रकार कुल पांच मेरु पर्वत हैं। प्रत्येक मेरु पर्वतपर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चार वन हैं और एक-एक वनमें चार-चार चैत्यालय हैं। मेरुपंक्तिवतमें वनोंको लक्ष्य कर बेला और
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१. ८० उपवासाः २० षष्ठानि ।
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