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हरिवंशपुराणे तत्रापत्यविहोनाया विलूनालकबल्लरीम् । 'स्नास्यतस्तामधः कृत्वा पादयोस्तु वधूवरौ ॥२६॥ प्रशस्यं च यशस्यं च यशोभागिनि भागिनि । यदि ते रोचते कार्यमिदमायेंऽनुमन्यताम् ॥२७॥ कर्णामृतमिवाकर्ण्य तन्निवृत्य जगावसौ । तथाऽस्त्विति ततो गत्वा ताः स्वामिन्यै न्यवेदयन् ॥२८॥ रुक्मिणी तु शिरःस्नाता शयिता शयने निशि । स्वप्ने हंसविमानेन विजहार किलाम्बरे ॥२९॥ विबुद्धा च समाचख्यौ पत्ये स्वप्नमसौ जगौ । सुपुत्रस्ते वियच्चारी भविताऽत्र महानिति ॥३०॥ वचः पत्युरसौ श्रुत्वा विकासमगमद् वधूः । तेजसाऽशुमतः श्लिष्टा पभिनीव दिनानने ॥३॥ अवतीर्याऽच्युतेन्द्रस्तु रुक्मिणीगर्ममाश्रितः । पूरयन् परमानन्दमुपेन्द्रस्य जनस्य च ॥३२॥ तत्काले सत्यभामापि शिरसस्नातवती सती । अधत्त स्वश्च्युतं गर्म सुतं सुस्वप्नपूर्वकम् ॥३३॥ वर्धमानौ च तो गर्मों वर्धमानयशोलतौ । वर्द्धमानां मुदं मात्रोः पितुश्चाकुरुतां पराम् ॥३४॥ पूर्वप्रसवमासेऽत्र प्रसूता रुक्मिणी सुतम् । नरलक्षणसंपूर्ण सत्यापि युगपन्निशि ॥३५॥ प्रहिताश्च हितास्ताभ्यां युगपन्निशि वर्द्धकाः । शिरोऽन्ते सत्यया विष्णोः पादान्ते तस्थुरन्यया ॥३॥ प्रबुद्धश्च हरिर्दिष्टपै रुक्मिणीपुत्रजन्मना । आनन्दितो ददौ तेभ्यः स्वास्पृष्ट विभूषणम् ॥३०॥
परावृत्य पुनः पश्यन् सत्यमामाजनैः स्तुतः । पुत्रोत्पत्त्या ददौ तुष्टस्तेभ्योऽप्यर्थ जनार्दनः ॥१८॥ न होगा उसकी कटी हुई केश-लताको पैरोंके नीचे रखकर वधू और वर स्नान करेंगे'। यह कार्य बहुत ही प्रशस्त तथा यशको बढ़ानेवाला है इसलिए हे यशस्विनि ! हे भाग्यशालिनि ! हे आयें ! यदि आपको रुचता है-अच्छा लगता है तो स्वीकृति दीजिए ।।२३-२७॥ कानोंके लिए अमृतके समान आनन्द देनेवाले उस वचनको सुनकर रुक्मिणीने सन्तुष्ट हो 'तथास्तु' कह दिया और दूतियोंने जाकर अपनी स्वामिनी-सत्यभामाके लिए वह समाचार कह सुनाया ॥२८॥
तदनन्तर चतुर्थ स्नानके बाद रुक्मिणी जब रात्रिमें शय्यापर सोयी तब उसने स्वप्नमें हंसविमानके द्वारा आकाशमें विहार किया ॥२९॥ जागनेपर उसने वह स्वप्न पतिदेव श्रीकृष्णके लिए कहा और उसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि तुम्हारे आकाशमें विहार करनेवाला कोई महान् पुत्र होगा ॥३०॥ पतिके वचन सुनकर रुक्मिणी, प्रातःकालके समय सूर्यको किरणोंसे संसर्गको प्राप्त हुई कमलिनीके समान विकासको प्राप्त हुई ॥३१॥ तदनन्तर श्रीकृष्ण तथा अन्य समस्त जनोंके परम आनन्दको बढ़ाता हुआ अच्युतेन्द्र, स्वर्गसे अवतार ले रुक्मिणीके गर्भमें आया ॥३२॥
उसी समय सत्यभामाने भी शिरसे स्नान कर उत्तम स्वप्नपूर्वक स्वर्गसे च्युत हुए पुत्रको गर्भमें धारण किया ॥३३॥ जिनकी यशरूपी लता बढ़ रही थी ऐसे बढ़ते हुए दोनों गर्भोने अपनीअपनी माताओं और पिताके परम आनन्दको वृद्धिगत किया ॥३४॥ प्रसवका महीना पूर्ण होनेपर रुक्मिणीने उत्तम मनुष्यके लक्षणोंसे युक्त पुत्र उत्पन्न किया और उसीके साथ-साथ सत्यभामाने भी रात्रिमें उत्तम पुत्रको जन्म दिया ॥३५॥ दोनों ही रानियोंने हितके इच्छुक एवं शुभ समाचार देनेवाले पुरुष रात्रिके ही समय एक साथ श्रीकृष्णके पास भेजे। उस समय श्रीकृष्ण शयन कर रहे थे इसलिए सत्यभामाके द्वारा भेजे सेवक उनके सिरके पास और रुक्मिणीके द्वारा भेजे सेवक उनके चरणोंके समीप खड़े हो गये ॥३६॥ जब श्रीकृष्ण जगे तो पहले उनकी दृष्टि चरणोंके पास खड़े सेवकोंपर पड़ी। उन्होंने भाग्य-वृद्धिके लिए पहले रुक्मिणीके पुत्र-जन्मका समाचार सुनाया जिससे प्रसन्न होकर कृष्णने उन्हें अपने शरीरपर स्थित आभूषण पुरस्कार में दिये ॥३७॥ तदनन्तर जब कृष्णने मुड़कर दूसरी ओर देखा तो सत्यभामाके सेवकजनोंने उनकी स्तुति कर उन्हें
१. स्नास्येते म., ख., आस्येते ग., अ., प.। २. न्यवेदयत् म.। ३. हरिदृष्ट्ये म. ।
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