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चतुश्चत्वारिंशः सर्गः
तस्या भ्राता महासेनः समागत्य नतो हरिम् । संमान्य मानिना मुक्तः सिंहलद्वीपमभ्यगात् ॥ २५॥ राष्ट्रवर्धन इत्यासीत्सुराष्ट्राधिपतिर्नृपः । अजाखुरी पुरी चास्य विनया वनितोत्तमा ||२६|| तस्यां नमुचिनाम्नाभूत्तनयो नयविक्रमी । तजया च सुसीमाख्या सुपीमा वसुधा यथा ॥ २७ ॥ युवराजः स नमुचिः क्षितिविश्रुतपौरुषः । राज्ञोऽवमन्यते मान्यानभिमानमहागिरिः ||२८|| नमुचिश्व सुसीमा च समुद्र स्नातुमागतौ । हितेन हरये तेन नारदेन निवेदितौ ॥२९॥ प्रभासतीर्थ तीरस्थसैन्यं तं सीरिणा हरिः । गत्वा निहत्य हृत्वा तां कन्यां द्वारवतीमगात् ||३०|| लक्ष्मणाभवनाभ्यणं सौत्रणं भुवनोत्तमम् । दत्वा सौवं यथारंस्त सीमन्तिन्या सुसीमया ॥ ३१ ॥ राष्ट्रवर्धनराजोऽपि सुतायै सुपरिच्छदम् । प्रजिघाय रथेभादिप्राभृतं प्रभवे तथा ॥३२॥ सिन्धुदेशाधिपो मेरुरिक्ष्वाकुकुलवर्धनः । पुरे वीतभये चासोच्चन्द्रवत्यस्य मामिनी ॥ ३३ ॥ गौरी नामाभवत्तस्यां गौरी वर्णेन कन्यका । गौरीव रूपिणी बिंद्या गौरीतिरहितेव सा ॥ ३४ ॥ दूतप्रेषणपूर्वं स मेरुः प्रेषयति स्म ताम् । नैमित्तिकवचःस्मर्ता हरये हरिणेक्षणाम् ॥३५॥ परिणीय हरिगौरी मनोहरणकारिणीम् । सुसीमासदनाभ्यणं प्रादात्प्रासादमुच्चकैः ॥३६॥ अरिष्टपुरनाथस्य सीरिणो मातुलस्य तु । राज्ञो हिरण्यनाभस्य श्रीकान्तायां सुयोषिति ॥ ३७॥
दे रमण करने लगे ||२४|| लक्ष्मणाका भाई महासेन कृष्णके पास आकर नम्रीभूत हुआ और मानी कृष्ण के द्वारा सम्मान पूर्वक विदा पाकर अपने सिंहलद्वीपको चला गया ॥ २५ ॥
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उसी समय सुराष्ट्र देशमें एक राष्ट्रवर्धन नामका राजा था । अजाखुरी उसकी नगरी थी और विनया नामकी रानी थी जो समस्त स्त्रियोंमें उत्तम थी ||२६|| विनया नामक रानीसे उसके नमुचि नामका पुत्र हुआ था जो नीति और पराक्रमका भण्डार था । इसी प्रकार एक सुसीमा नामकी पुत्री थी जो कि उत्तम सोमासे युक्त पृथिवीके समान जान पड़ती थी ||२७|| युवराज नमुचिका पराक्रम समस्त पृथिवीमें प्रसिद्ध था । वह अभिमानका मानो बड़ा ऊँचा पर्वत था और माननीय राजाओं का निरन्तर तिरस्कार करता रहता था ||२८|| एक दिन युवराज नमुचि और उसकी बहन सुसीमा दोनों ही स्नान करनेके लिए समुद्रतटपर आये । इधर हितकारी नारदने श्रीकृष्ण के लिए उन दोनोंकी खबर दी ||२९|| श्रीकृष्ण खबर पाते ही बलदेवके साथ वहाँ गये और प्रभास तीर्थ के तीरपर जिसकी सेना ठहरी हुई थी ऐसे उस नमुचिको मारकर तथा कन्या सुसीमाको हरकर द्वारिका आ गये ||३०|| वहाँ लक्ष्मणाके भवनके समीप सुवर्णमय उत्तम महल देकर उसके साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ||३१|
तदनन्तर सुसीमा के पिता राजा राष्ट्रवर्धनने भी पुत्री के लिए उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण और श्रीकृष्ण के लिए रथ, हांथी आदिकी भेंट भेजी ||३२||
उसी समय सिन्धुदेशके वीतभय नामक नगरमें इक्ष्वाकु वंशको बढ़ानेवाला मेरु नामका राजा रहता था, उसकी चन्द्रवती नामकी भार्या थी ||३३|| उससे उसके एक गौरी नामकी कन्या उत्पन्न हुई थी जो गौरवर्णकी थी, रूपवती गौर विद्याके समान थी अथवा ईतियोंसे रहित पृथिवी समान जान पड़ती थी ||३४|| निमित्तज्ञानीने बताया था कि यह नौंवें नारायण श्री कृष्ण को स्त्री होगी, इसलिए उसके वचनोंका स्मरण रखनेवाले राजा मेरुने पहले तो श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और उसके बाद मृगलोचना गौरीको भेजा ||३५|| श्रीकृष्णने मनको हरनेवाली गौरीको विवाहकर उसके लिए सुसीमाके भवन के समीप ऊँचा महल प्रदान किया || ३६ ||
उसी समय बलदेव के मामा राजा हिरण्यनाभ अरिष्टपुर नगरमें राज्य करते थे । उनकी १. यथा म. । २. ईतिरहिता गौरिव पृथिवी इव । ३. हरिणेक्षणा म । ४. मनोहरणसारिणीं म ।
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