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हरिवंशपुराणे
ज्ञात्वा महानरं तं च कन्यामादाय तां नृपः । सान्तःपुरः पुरः स्थित्वा जगाद मधुरं वचः ॥११०॥ तवानुरूपकन्येयं दीयते प्रतिपद्यताम् । मिक्षा प्रसारय श्रीमन् पाणिं पाणिग्रहं प्रति ॥११॥ अपूर्वेयमहो भिक्षा नेदृशी प्रति सांप्रतम् । स्वातन्त्र्यमिति सभाष्य गत्वा तेभ्यो न्यवेदयत् ॥११२॥ साधे मासमिह स्थित्वा पुरे जग्मुरभी ततः । तरोत्य(?)नर्मदां नर्मप्रवणां विन्ध्यमाविशन् ॥१३॥ संध्याकारेऽन्तरद्वीपे संध्याकारे पुरे नृपः । हिडम्बवंशसंभूतः सिंहवोषोऽवतिष्ठते ॥११॥ देवी सुदर्शना तस्य सुता हृदयसुन्दरी । मेघवेगः त्रिकूटेन्द्रो याचित्वा तां न लब्धवान् ।।११५।। यो हनिष्यति तं विन्ध्ये गदाविद्याप्रसाधकम् । भर्ता हृदयसुन्दर्या इति नैमित्तिकागमः ।।११६॥ द्रुमकोटरमध्यास्य साधयन्तं खगं गदाम् । तयैव गदया सागं मीमोऽ पीपतदेकदा ॥११७॥ ततो हृदयसुन्दर्या भीमसेनस्य संगमः । हैडिम्बेन च संबन्धः संबभूव महोत्सवः ॥११॥ विहृत्य विविधान् देशान् दाक्षिणात्यान् महोदयाः । ते हास्तिनपुरं गन्तुं प्रवृत्ताः पाण्डुनन्दनाः।।११९।। प्राप्ता मार्गवशाद्विश्वे माकन्दी नगरी दिवः । प्रतिच्छन्दस्थितिं दिव्यान् दधाना देवविभ्रमान् ॥१२०॥ दुपटोऽस्यास्तदा भूपस्तस्य मोगवती प्रिया । धृष्टद्युम्नादयः पुत्राः प्रत्येकं दृष्टशक्तयः ॥१२॥
अभिलाषासे राजमहलमें गये। वहाँ राजा वृषध्वजने उन्हें देखा ॥१०९॥ देखते ही उसने समझ लिया कि यह कोई महापुरुष है इसलिए वह कन्या दिशानन्दाको लेकर अपने अन्तःपुरके साथ भीमके आगे खड़ा हो गया और इस प्रकारके मधुर वचन कहने लगा ॥११०॥ 'हे श्रीमन् ! यह कन्या ही आपके लिए अनुरूप भिक्षा है इसलिए इसे स्वीकृत कीजिए, पाणिग्रहणके लिए हाथ पसारिए' ॥१११॥ भीमने कहा कि 'अहा! यह भिक्षा तो अपूर्व रही, इस समय ऐसी भिक्षा स्वीकृत करने के लिए मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। उक्त उत्तर दे भीमने अपने आवासस्थानपर आकर युधिष्ठिर आदिके लिए यह समाचार सुनाया ॥११२।। तदनन्तर ये सब इस नगरमें डेढ़ मास तक रहे। उसके बाद क्रीड़ाओंके प्रदान करने में निपुण नर्मदा नदीको पार कर विन्ध्याचलमें प्रविष्ट हुए ॥११३।। विन्ध्याचलके बीच सन्ध्याके आकारका एक अन्तरद्वीप था। उसके सन्ध्याकार नामक नगरमें हिडिम्बवंशमें उत्पन्न राजा सिंहघोष रहता था ॥११४|| उसकी सुदर्शना नामकी स्त्री थी और उससे हृदयसुन्दरी नामकी पुत्री उत्पन्न हई थी। त्रिकूटाचलका स्वामी मेघवेग उस हृदयसुन्दरीको चाहता था और उसके निमित्त उसने राजा सिंहघोषसे याचना भी की थी परन्तु वह उसे प्राप्त नहीं कर सका ।।११५।। हृदयसुन्दरीके विषयमें निमित्तज्ञानियोंने यह कहा था कि "विन्ध्याचलपर गदाविद्याको सिद्ध करनेवाले विद्याधरको जो मारेगा वही हृदयसुन्दरीका पति होगा' ॥११६॥ भीमने विन्ध्याचलपर जाकर देखा कि एक विद्याधर वक्षकी कोटरमें बैठकर गदाको सिद्ध कर रहा है। देखते ही भीमने वह गदा हाथमें ले ली और उसीके प्रहारसे उस वृक्षको एक साथ गिरा दिया ॥११७।। तदनन्तर भीमका हृदयसुन्दरीके साथ समागम हुआ। हिडिम्बवंशी राजा सिंहघोषके साथ पाण्डवोंका यह सम्बन्ध महान् हर्षका कारण हुआ ॥११८॥
तदनन्तर महान् अभ्युदयको धारण करनेवाले पाण्डव दक्षिणके नाना देशोंमें बिहार कर हस्तिनापुर जानेके लिए उद्यत हुए ॥११९|| मार्गके वश चलते-चलते वे सब, स्वर्गके प्रतिबिम्बको धारण करनेवाली माकन्दी नगरी पहुंचे। उस समय सुन्दर शरीरसे सुशोभित पाण्डव देवोंके विभ्रमको धारण कर रहे थे-देवोंके समान जान पड़ते थे ।।१२०।। वहाँका राजा द्रुपद था, उसकी स्त्रीका नाम भोगवती था और उन दोनोंके धृष्टद्युम्न आदि अनेक १. भिक्षां क., ख., ग., घ.। २. श्रीमान् म., श्रीमन् ख., थ.। ३. हतिष्यति म. । ४. सवृक्षं । ५. पातयामास । ६. सोऽङ्गं भीमोऽपापट्यदेकदा म. । ७. दिव्यां म.। ८. देवविभ्रमाः म. दिव्यां दधानां देवविभ्रमाः घ.।
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