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हरिवंशपुराणे
तदेवान्ववदत्पाण्डोः प्रथमस्तनयो यतः । धर्मं चाकथय युक्तमणुशीलगुणवतैः ॥ ८६ ॥ परस्परं समालापे मनः प्रीतिकरेऽनयोः । वर्तमाने तदा कन्या मनसामन्यतेति सा ॥८७॥ राजलक्षणयुक्तः स किं स्यादेष युधिष्ठिरः । समातृकोऽनुशास्तीह मामतीव कृपान्वितः ॥ ८८ ॥ सर्वथा मम पुण्येन गण्येन तपसापि च । सत्यसन्धः प्रियो जीव्यादनाह तिरिहोद्यमी ॥ ८९ ॥
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यासवस्तु युक्तानां पुनर्दर्शनमस्त्विति । सम्मानिताः प्रियाला पैरयुरस्थाश्च साशया ॥ ९० ॥ समुद्रविजयः श्रुत्वा स्वसृस्वस्त्रीयमारणम् । मारणाय कुरूणां स प्राप्तः कुपितमानसः ॥९१॥ जरासन्धस्ततः प्राप्य स्वयमेव महादरः । यदूनां कौरवाणां च संधिमापाद्य यातवान् ॥९२॥ इतोऽपि तापसाकारं त्यक्त्वेति द्विजवेषिणः । प्रयान्तो भ्रातरः कुन्त्या प्रापुरीहापुरं परम् ॥ ९३ ॥ मीमसेनो महाभीमं भृङ्गामं भृङ्गराक्षसम् । मनुजाशनमुद्वास्य 'तत्रास त्रासमङ्गिनाम् ॥९४॥ वीतभीभ्यः प्रजाभ्यस्ते प्राप्तपूजाः समातृकाः । व्रजन्तः स्वेच्छया प्रापुस्त्रिशृङ्गाख्यं महापुरम् ॥ ९५ ॥ प्रचण्डवाहनस्तत्र प्रचण्डश्चण्डकर्मणाम् । आसीनृपतिरस्येष्टा वनिता विमलप्रभा ॥ ९६ ॥ रूपातिशय संपूर्णाः पूर्णचन्द्रसमाननाः । कलापारमिताः सर्वास्तयोर्दुहितरो दश ||१७||
कहने से तू तपस्या करती हुई भी इन्हें अवश्य धारण कर । यदि जीवित रहेगी तो कल्याणको अवश्य प्राप्त करेगी ॥८५॥ पाण्डुके प्रथम पुत्र - युधिष्ठिर ने भी माता कुन्तीके ही वचनोंका अनुवाद किया - वही बात कही और अणुव्रत, शीलव्रत तथा गुणव्रतोंसे युक्त धर्मका उपदेश दिया ॥८६॥ उस समय युधिष्ठिर तथा कन्याका, मनमें प्रीति उत्पन्न करनेवाला जो परस्पर वार्तालाप हुआ था उससे कन्याने मनमें यह समझा अर्थात् यह शंका उसके मनमें उत्पन्न हुई कि क्या यह राजाओंके लक्षणोंसे युक्त वही युधिष्ठिर हैं जो दयासे युक्त हो माताके साथ यहाँ मुझे अत्यधिक उपदेश दे रहे हैं ? मेरे पुण्य अथवा गणनीय आदरणीय तपसे ही यहां प्रकट हुए हैं। ये दृढ़प्रतिज्ञ और उद्यमी प्रिय, कुमार यहाँ बिना किसी आघातसे चिर काल तक जीवित रहें ।८७-८९ ॥
युधिष्ठिर आदि पाण्डव जब वहांसे जाने लगे तब उस कन्याने 'आप शिष्ट जनोंका फिरसे दर्शन प्राप्त हो' यह कह मधुर वार्तालापसे उनका सम्मान किया। वे चले गये और कन्या युधिष्ठिरकी प्राप्तिको आशासे उसी तपोवनमें रहने लगी ॥९०॥ इधर जब राजा समुद्रविजयने सुना कि दुर्योधनने हमारी बहन तथा भानजोंको महलमें जलाकर मार डाला है तब वे कुपित हो कौरवोंको मारनेके लिए आये ॥९१॥ तदनन्तर महान् आदरसे युक्त जरासन्धने स्वयं आकर यादवों और कौरवोंके बीच सन्धि करा दी। सन्धि कराकर जरासन्ध अपनी राजधानीको चला गया ॥ ९२ ॥
इधर पाण्डव तापसोंका वेष छोड़ सामान्य ब्राह्मणके वेषमें विचरण करने लगे और माता कुन्ती के साथ चलते-चलते सब ईहापुर नामक उत्तम नगर में पहुँचे ॥ ९३ ॥ वहाँ एक भ्रमर के समान काला भृंगराक्षस नामका महाभयंकर नरभोजी राक्षस मनुष्योंको दुःखी कर रहा था सो भीमसेनने उसे नष्ट कर वहाँके निवासियोंका भय दूर किया ||१४|| जिनका भय नष्ट हो गया था ऐसे प्रजाके लोगोंने मातासहित पाण्डवोंका खूब सत्कार किया । तदनन्तर इच्छानुसार चलते हुए वेटिंग नामक महानगर में पहुँचे ||९५|| वहां क्रूरकर्मा मनुष्योंके लिए तीव्र दण्ड देनेवाला प्रचण्डवाहन नामका राजा था। उसकी विमलप्रभा नामको प्रिय स्त्री थी ॥ ९६ ॥ उन दोनों के दश पुत्रियाँ थीं जो सबकी - सब रूपके अतिशयसे युक्त, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली और १. - दन्याहति म । २. सम्मानिता म । ३. ९१-९२ - तमौ श्लोको कन्पुस्तके केनापि रेखां दत्त्वा न्यक्कृतौ ।
४. तत्र + आस । तत्र = नगरे, अङ्गिनां त्रासम्, आस = क्षिप्तवान् । ५. प्राप्तपूजा म. ।
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