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हरिवंशपुराणे
प्रलीनानेव तान्मत्वा पाण्डवान् गोत्रजास्ततः । निवृत्ता इव ते तस्थुः कृतकालोचितक्रियाः ॥ ५९ ॥ नदीं गङ्गां समुत्तीर्य कौन्तेयास्तु महाधियः । कृतवेषपरावर्तास्ते पूर्वां दिशमाश्रिताः ॥ ६० ॥ कुन्तीगतिवशेनैते गच्छन्तः सुखमिच्छया । कौशिकाख्यां पुरीं प्राप्ता वर्णो यत्र नरेश्वरः ॥ ६१ ॥ तस्य प्रभावती मार्या सुता कुसुमकोमला । जनानुरागतस्तांस्तान् श्रुत्वा दृष्टवती तदा ॥६२॥ युधिष्ठिरकुमारेन्दुदर्शनेन सुदर्शना । कन्या कुमुद्वतो धन्या विकासमगमत्परम् ॥६३॥ अचिन्तयदसौ तस्य भाविनी प्रियभामिनी । इह जन्मनि मे भूयादयमेव परो वरः ॥ ६४॥ ज्ञात्वाभिप्रायमस्याः स संजातप्रेमबन्धनः । आशाबन्धं प्रदर्श्यागात्संज्ञयैव करग्रहे ॥ ६५॥ प्रतीक्षमाणया तस्य तथा भूयः समागमम् । नीयते स्म विनोदैः स्वैः कालः कन्याजनोचितैः ॥६६॥ ततस्ते ललिताकाराः स्वभावेन सहोदराः । द्विजवेषभृतो जग्मुर्जनचित्तापहारिणः ॥६७॥ आसनं शयनं तेषां भोजनं च मनोहरम् । सुखेनैव सुपुण्यानामचिन्तितमभूत्तदा ॥ ६८ ॥ पुनस्तापसवेषेण प्राप्ताः श्लेष्मान्तकं वनम् । ते तापसाश्रमे रम्ये विशश्रमुरिहार्चिताः ॥ ६९॥ वसुंधरपुरेशस्य विन्ध्यसेनस्य देहजा । वसन्तसुन्दरीनाम्ना नर्मदाजास्ति तत्र च ॥ १० ॥ युधिष्ठिराय सा दत्ता पुरैव गुरुभिर्वरा । दग्धवार्तामुपश्रुत्य निन्दितस्वपुराकृता ॥ ७१ ॥ जन्मान्तरेऽपि काङ्क्षन्ती तस्य कान्तस्य दर्शनम् । तपश्चरितुमारब्धा तत्र सा तापसाश्रमे ॥७२॥
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तदनन्तर कुटुम्बके लोगोंने समझा कि पाण्डव तो इसी आगमें भस्म हो चुके हैं इसीलिए वे मरणोत्तरकाल होनेवाली क्रियाओंको कर निश्चिन्त - जैसे होकर रहने लगे ॥ ५९ ॥
इधर महाबुद्धिमान् पाण्डव गंगा नदीको पार कर तथा वेष बदलकर पूर्व दिशाकी ओर गये || ६० || माता कुन्ती धीरे-धीरे चल पाती थी इसलिए वे उसकी चालके अनुसार इच्छापूर्वक सुखसे धीरे-धीरे चलते हुए उस कौशिक नामकी नगरीमें पहुँचे जहां वर्णं नामका राजा रहता था ॥ ६१ ॥ राजा वर्णकी स्त्रीका नाम प्रभावती था और उससे उसके कुसुमकोमला नामकी पुत्री उत्पन्न हुई थी । पाण्डवोंपर लोगोंका अधिक अनुराग था इसलिए कुसुमकोमलाने भी उनका नाम सुना तथा उन्हें देखा || ६२ ॥ | वह भाग्यशालिनी सुन्दर कन्यारूपी कुमुदिनी, युधिष्ठिररूपी चन्द्रमाको देखनेसे परम विकासको प्राप्त हो गयी ||६३ || जो युधिष्ठिरकी प्रिय स्त्री होनेवाली थी ऐसी कन्या कुसुमकोमला उन्हें देख मनमें विचार करने लगी कि इस जन्ममें मेरे यही उत्तम पति हों ||६४॥ कन्याके अभिप्रायको जानकर युधिष्ठिर के भी प्रेमरूपी बन्धन समुत्पन्न हो गया और वे इशारे से विवाहकी आशा दिखा आगे चले गये || ६५ ॥ कुसुमकोमला, उनके पुनः समागमकी प्रतीक्षा करती हुई कन्याजनोंके योग्य विनोदोंसे समय बिताने लगी ॥६६॥
तदनन्तर जो स्वभावसे ही सुन्दर आकारके धारक थे ऐसे वे पांचों भाई ब्राह्मणका वेषं रख, मनुष्योंके चित्तको हरते हुए आगे चले ||१७|| वे सब महापुण्यशाली जीव थे इसलिए उस अज्ञातवास के समय भी उन्हें मनोहर आसन, शयन और भोजन सुखपूर्वक अचिन्तित रूपसे प्राप्त होते रहते थे || ६८|| तत्पश्चात् वे तापसके वेषमें श्लेष्मान्तक नामक वनमें पहुँचे वहाँ तापसोंके सुन्दर तपोवनमें उन्होंने विश्राम किया और तापसोंने उनका अच्छा सत्कार किया ।। ६९ ।। उस आश्रम में वसुन्धरपुरके राजा विन्ध्यसेनकी वसन्तसुन्दरी नामकी पुत्री, जो कि नर्मदा नामक स्त्रीसे उत्पन्न हुई थी रहती थी ॥७०॥ यह कन्या गुरुजनोंने युधिष्ठिर के लिए पहले ही दे रखी थी परन्तु जब उनके जल जानेका समाचार सुना तब वह अपने पूर्वकृत कर्मकी निन्दा करती हुई इस इच्छासे कि 'उन प्राणनाथका दर्शन इस जन्म में न हो सका तो जन्मान्तर में हो', तपस्वियोंके उस आश्रम में तप करने लगी थी ।।७१-७२ ॥ १. -मासुताः म । २ तास्तान् म । ३. नर्मदायाश्च तत्र च क । नर्मदायास्ति ग, घ, ङ. ।
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