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हरिवंशपुराणे मीष्मोऽपि शन्तनोरेव संताने रुक्मणः पिता । यस्य गङ्गाभिधा माता राजपुत्री पवित्रधीः ॥३५॥ धृतराष्ट्रस्य तनया दुर्योधनपुरस्सराः । नयपौरुषसंपन्नाः परस्परहिते रताः ॥३६॥ पाण्डोः कुन्त्यां समुत्पन्नः कर्णः कन्याप्रसंगतः । युधिष्ठिरोऽर्जनो मीम ऊढायामभवंस्त्रयः ॥३७॥ नकुलः सहदेवश्च कुलस्य तिलको सुतौ । मद्यामद्रिस्थिरौ जातो पञ्च ते पाण्डुनन्दनाः ॥३८॥ पाण्डौ स्वर्ग गते देव्या भव्यां च जिनधर्मतः । पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च राज्येऽभवन्विरोधिनः ॥३९॥ विमज्य कौरवं राज्यं भुञ्जतां समभागतः । पञ्चानामेकतस्तेषामितरेषां तथैकतः ॥४०॥ भीष्मश्च विदुरो द्रोणो मध्यस्थाः शकुनिः पुनः । मन्त्री दुर्योधनस्येष्टाः शशरोमादयस्तथा ॥४१॥ अजयं सह कर्णेन वयं दुर्योधनस्य तु । जरासन्धेन नैभृत्यं निभृतस्याभवत्तराम् ॥४२॥ मार्गवाचार्यकं द्रोणो धनुर्वेदविशारदः । कौन्तेयधार्तराष्ट्राणां चक्रे मध्यस्थभावतः ॥४३॥ मार्गवाचार्यवंशोऽपि शृणु श्रेणिक वर्ण्यते । द्रोणाचार्यस्य विख्याता शिष्याचार्य परम्परा ॥४४॥ आत्रेयः प्रथमस्तत्र तच्छिष्यः कौथुमिः सुतः । तस्याभूदमरावतः सितस्तस्यापि नन्दनः ॥४०॥ वामदेवः सुतस्तस्य तस्यापि च कपिष्ठलः । जगत्स्थामा सरवरस्तस्य शिष्यः शरासनः ॥४६॥ तस्माद्रावण इत्यासीत्तस्य विद्रावणः सुतः । विद्रावणसुतो द्रोणः सर्वभार्गववन्दितः ॥४७॥ अश्विन्यामभवत्तस्मादश्वत्थामा धनुर्धरः । रणे यस्य प्रतिस्पर्धी पार्थ एव धनुर्धरः ॥४८॥
अम्बालिकासे पाण्डु और अम्बासे ज्ञानिश्रेष्ठ विदुर ये तीन पुत्र हुए ॥३४॥ भीष्म भी शन्तनुके ही वंशमें उत्पन्न हुए थे। धृतराजके भाई रुक्मण उनके पिता थे और पवित्र बुद्धिको धारण करनेवाली राजपुत्री गंगा उनकी माता थी ॥३५॥ राजा धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र थे जो नय-पौरुषसे युक्त तथा परस्पर एक दूसरेके हित करनेमें तत्पर थे ।।३६।। राजा पाण्डुकी स्त्रीका नाम कुन्ती था, जिस समय राजा पाण्डुने गन्धर्व विवाह कर कुन्तीसे कन्या अवस्थामें सम्भोग किया था उस समय कर्ण उत्पन्न हुए थे और विवाह करने के बाद युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम
तीन पत्र हए ॥३७॥ इन्हीं पाण्डको माद्री नामकी दूसरी स्त्री थी उससे नकल और सहदेव ये दो पुत्र उत्पन्न हुए। ये दोनों ही पुत्र कुलके तिलकस्वरूप थे और पर्वतके समान स्थिर थे। युधिष्ठिरको आदि लेकर तीन तथा नकुल और सहदेव ये पाँच पाण्डव कहलाते थे ।।३८|| जब राजा पाण्डु और रानी माद्री जिन-धर्मके प्रसादसे स्वर्गवासी हो गये तब पाण्डव और दुर्योधनादि धार्तराष्ट्र राज्य-विषयको लेकर एक दूसरेके विरोधी हो गये ॥३९॥ जब इनका विरोध बढ़ने लगा तब भीष्म, विदुर, द्रोण, मन्त्री शकुनि तथा दुर्योधनके मित्र शशरोम आदिने मध्यस्थ बनकर कौरवोंके राज्यके बराबर दो भाग कर दिये। एक भाग युधिष्ठिर आदि पाँच पाण्डवोंको मिला और दूसरा भाग दुर्योधन आदि सौ कौरवोंको प्राप्त हआ ॥४०-४१।।
इधर दुर्योधनकी कर्णके साथ उत्तम मित्रता हो गयी और जरासन्धके साथ स्थिर बैठकें होने लगीं ॥४२॥ द्रोणाचार्य धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण थे और वे मध्यस्थ-भावसे पाण्डवों तथा कौरवोंके लिए भार्गवाचार्यका काम करते थे अर्थात् दोनोंको समान रूपसे धनुर्विद्याका उपदे देते थे ॥४३॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! द्रोणाचार्यकी शिष्य और आचार्योकी परम्परा तो प्रसिद्ध है अतः उसे छोड़ भार्गवाचार्यकी वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ उसे सुन ।।४४॥ भार्गवका प्रथम शिष्य आत्रेय था, उसका शिष्य कोथुमि पुत्र था, कौथुमिका अमरावर्त, अमरावर्तका सित, सितका वामदेव, वामदेवका कपिष्ठल, कपिष्ठलका जगत्स्थामा, जगत्स्थामाकार सरवरका शरासन, शरासनका रावण, रावणका विद्रावण और विद्रावणका पुत्र दोणाचार्य था जो समस्त भार्गव वंशियों के द्वारा वन्दित था-सब लोग उसे नमस्कार करते थे।४५-४७॥ द्रोणाचार्य
१. नैर्वत्यं ग.। २. कौण्डिनिः म.। ६. कपिष्टकः म,।
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