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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः पार्थप्रतापविज्ञानमात्सर्योपहता अथ । दुर्योधनादयः कतु संधिदूषणमुद्यताः ॥४९॥ पञ्च कौरवराज्यार्धमेकतः शतमेकतः । भुञ्जन्ति किमितोऽन्यत्स्यादन्याय्यमिति ते जगुः ॥५०॥ समुद्रा इव चस्वारस्ततः परुषवायुभिः । अपि प्रसन्नगम्मोराः क्षुमिताः पाण्डुनन्दनाः ॥५१॥ छादयामि द्विषच्छेलं शरधाराभिरुच्छ्रुितम् । इत्युत्थितोऽर्जुनोऽम्भोदः शमितोऽग्रजवायुना ॥५२॥ दृष्ट्या दहामि दायादशतमित्युदितं ब्रुवन् । मन्त्रेणाशीशमज्ज्यायान् स्फुरदीमभुजङ्गमम् ॥५३॥ अहितापकुलान्ताय नकुलोऽपि कृतोद्यमः । ज्येष्ठेन सनयं रुद्धो भुजपन्जरयन्त्रितः ॥५४॥ मस्मयामि लघु द्वेषिवनखण्डमिति ज्वलन् । अशामि ज्येष्ठमेघेन सहदेवदवानलः ॥५५॥ वसतां शान्तचित्तानां दिनैः कतिपयैरपि । प्रसुप्तानां गृहं तेषां दीपितं धृतराष्ट्रजैः ॥५६॥ विबुध्य सहसा मात्रा सत्रा ते पञ्चपाण्डवाः । सुरङ्गया विनिःसृत्य गताः काप्यपमीरवः ॥५॥
ततोऽपरागो लोकस्य जातो दुर्योधनं प्रति । क वा पापानुरागाव्ये नापरागः सतो भवेत् ॥५॥ को अश्विनी नामक स्त्रीसे अश्वत्थामा नामक पुत्र हुआ था। यह अश्वत्थामा बड़ा धनुर्धारी था और युद्ध में एक अर्जुन ही उसका प्रतिस्पर्धी था-अर्जुन ही उसकी बराबरी कर सकता था अन्य नहीं ॥४८॥
तदनन्तर अर्जुनके प्रताप और विज्ञानसे ईर्ष्या रखनेवाले दुर्योधन आदि कौरव सन्धिमें दोष लगानेके लिए उद्यत हो गये अर्थात् अर्जुनके लोकोत्तर प्रताप और अनुपम सूझ-बूझसे ईर्ष्या कर कौरव लोग राज्यके विषयमें पहले जो सन्धि हो चुकी थी उसमें दोष लगाने लगे ।।४९।। वे कहने लगे कि कोरवोंके आधे राज्यको एक ओर तो सिर्फ पांच-पाण्डव भोगते हैं और एक ओर आधे राज्यको हम सो भाई भोगते हैं-इससे बढ़कर अन्यायपूर्ण कार्य और क्या होगा? ॥५०॥ दुर्योधनादिकका यह विचार पाण्डवोंने भी सुना। पाण्डवोंमें युधिष्ठिर शान्तिप्रिय व्यक्ति थे अतः उन्होंने इस ओर कुछ ध्यान नहीं दिया परन्तु शेष चार पाण्डव प्रसन्न तथा गम्भीर होनेपर भी उस तरह क्षोभको प्राप्त हो गये जिस तरह कि प्रचण्ड वायुसे चारों दिशाओंके चार समुद्र क्षोभको प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥ अर्जुनरूपी मेघ यह कहता हुआ उठकर खड़ा हो गया कि मैं उठते हुए इस शत्रुरूपी पर्वतको बाणरूपी जलकी धारासे अभी हाल आच्छादित किये देता हूँ परन्तु युधिष्ठिररूपी वायुने उसे शान्त कर दिया ।।५२॥ भीमरूपी भुजंग यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि मैं सो-के-सौ हिस्सेदारोंको अपनी दधिसे अभी भस्म किये देता हूँ परन्त बडे भाई यधिष्ठिरने उसे मन्त्रके द्वारा शान्त कर दिया ॥५३॥ नकुल भी, नकूल ( नेवला) के समान शत्रुरूपी सोके सन्तापदायी कुलका अन्त करनेके लिए उद्यम करने लगा परन्तु अग्रज-युधिष्ठिरने उसे अपने भुजरूपो पिंजरेमें कैद कर रोक रखा ॥५४॥ और सहदेवरूपी दावानल यह कहता हुआ देदीप्यमान होने लगा कि मैं शत्रुरूपी वनखण्डको अभी हाल भस्म किये देता हूँ परन्तु बड़े भाईयुधिष्ठिररूपी मेघने उसे शान्त कर दिया ॥५५॥
तदनन्तर सब पाण्डव शान्तचित्त होकर रहने लगे। कुछ दिनों बाद जब वे गहरी नींदमें सो रहे थे तब कौरवोंने उनके घरमें आग लगवा दी ॥५६॥ सहसा उनकी नींद खुल गयी और पांचोंके पांच पाण्डव माताको साथ ले सुरंगसे निकलकर निर्भय हो कहीं चले गये ॥५७॥ इस घटनासे जनताका दुर्योधनके प्रति विद्वेष उमड़ पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि पापमें अनुराग रखनेवाले किस पुरुषपर सज्जनोंको विद्वेष नहीं होता? अर्थात् सभीपर होता है ॥५८।। १. राज्यार्थं म., ग.। २. अहितानां शत्रूणामपकृष्टं कुलमपकुलं तस्यान्तस्तस्मै, पक्षे तापेनोपलक्षितं कुलं तापकुलं अहीनां सर्पाणां यत् तापकुलं तस्यान्तस्तस्मै । ३. नकुलः पाण्डव: पक्षे नकुलो जन्तुविशेषः । ४. शान्तः कृतः।
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