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चतुश्चत्वारिंशः सर्गः
द्रुतविलम्बितम् कृतरणं परिभूय' पुरःस्थितं रिपुगणं तृणवरक्षणमात्रतः । वरवधूवररत्नमयत्नतः श्रयति भव्यजनो जिनधर्मकृत् ॥५२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती जाम्बवत्यादिमहादेवीलाभवर्णनो नाम
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
कहते हैं कि जिनधर्मको धारण करनेवाला भव्य जीव युद्ध में सामने खड़े शत्रुओंके समूहको क्षणमात्रमें तृणके समान पराजित कर अनायास ही उत्तमोत्तम स्त्रीरूपी रत्नोंको प्राप्त कर लेता है ।।५२।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जाम्बवती
आदि महादेवियों के लाभ का वर्णन करनेवाला चवालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४४।।
१. प्रविभूय म., ग.।
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