________________
हरिवंशपुराणे
पद्मावतीं समुत्पन्नां कन्यां पद्मामिव स्वयम् । स्वयंवरगतां श्रुत्वा संप्राप्तौ रामकेशवौ ॥३८॥ गौरवमौ दृष्टावनावृष्टिपुरस्सरौ । प्रीत्या हिरण्यनाभेन स्वजनस्नेहवर्धनी ॥ ३९ ॥ पित्रा हिरण्यनाभस्य सत्रा प्राव्रजदग्रजः । पुरैव रेवतो नाम्ना महिम्ना यो वनश्रितः ॥४०॥ चतस्रस्तत्सुताः कन्या रेवती बन्धुमत्यपि । सीता राजीवनेत्रा च ता दत्ताः सोरिणे पुरा ॥ ४१ ॥ स्वयंवरे प्रवृत्तेऽत्र हृत्वा पद्मावतीं हठात् । रणशौण्डान्ममर्दाशु शौरिराहवदक्षिणः ॥ ४२ ॥ परिणीय सभाय तौ भ्रातरौ भ्रातृभिर्युतौ । द्वारिकामरे मायातावरंसात सुरोपमौ ॥ ४३ ॥ गौरीगृहसमीपे च पद्मावत्यै गृहं हरिः । प्रदाय प्रमदोपेतः प्रसादपरमोऽभवत् ॥४४॥ नयाँ पुष्कलावत्यां गान्धारविषयेऽमवत् । भूभृदिन्द्रगिरिस्तस्य मेरुसत्यभिधा प्रिया ॥ ४५॥ सुतो हिमगिरिस्तस्यां जातो हिमगिरिस्थिरः । गान्धारी दुहिता चार्वी गन्धर्वादिकलाधिका ॥ ४६ ॥ भ्रात्रा हयपुरीन्द्राय सुमुखाय ततो हरिः । दीयमानां विदिखना 'नारदादरमागतात् ||४७|| गत्वा हिमगिरिं हत्वा प्रतिकूलं रणाजिरे । तां हृत्वानीय सौम्यास्यामुपयम्य ससंमदः ||४८ || पद्मावत्या गृहोपान्ते गान्धार्यै भवनं वरम् । वितीर्य धैर्यसंपन्नामेनां भोगैरमानयत् ||४९ || महादेवीभिरिष्टाभिरष्टभिरवरोधने । प्रसाधिताभिराशाभिरिव तामिरुपासितः ||५०|| विन्दन् मोगफलं भूरि गोविन्दः पुण्यवृक्षजम् । संददज्जनतानन्दं ननन्द पुरुषौरुषः || ५१ ||
५३६
श्रीकान्ता नामकी उत्तम स्त्री थी । उससे उनके पद्मावती नामकी कन्या उत्पन्न हुई थी जो साक्षात् लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी । ' उसका स्वयंवर हो रहा है' यह सुनकर अनावृष्टि के साथ-साथ बलदेव और कृष्ण भी वहाँ गये || ३७-३८ || आत्मीयजनोंके साथ स्नेह बढ़ानेवाले इन दोनों को राजा हिरण्यनाभने बड़े गौरव और प्रेमके साथ देखा ||३९|| हिरण्यनाभका बड़ा भाई रेवत जो पिता के साथ पहले ही दीक्षित हो वनमें रहने लगा था उसकी चार कन्याएँ १ रेवती, २ बन्धुमती, ३ सीता और ४ राजीवनेत्रा बलदेवके लिए पहले ही दी जा चुकीं ॥४० - ४१ ॥ जब पद्मावतीका स्वयंवर होने लगा तब युद्धनिपुण श्रीकृष्ण, उसे हठपूर्वक हर ले आये और रणमें जिन्होंने शूरवीरता दिखायी उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर डाला ||४२॥ तदनन्तर विवाह कर अपनी-अपनी स्त्रियोंको साथ लिये दोनों भाई, भाइयोंके साथ शीघ्र ही द्वारिका आये और देवोंके समान क्रीड़ा करने लगे ||४३|| हर्षित श्रीकृष्ण गौरीके महलके समीप पद्मावतीके लिए महल देकर बहुत प्रसन्न हुए ॥४४॥
उसी समय गान्धार देशकी पुष्कलावती नगरी में एक इन्द्रगिरि नामका राजा रहता था । उसकी मेरुसती नामकी स्त्री थी। उससे उसके हिमगिरिके समान स्थिर हिमगिरि नामका पुत्र था और गान्धारी नामकी सुन्दरी पुत्री थी जो गन्धर्व आदि कलाओं में अत्यन्त निपुण थी ।। ४५-४६ ।। शीघ्रता से आये हुए नारदसे श्रीकृष्णको जब यह विदित हुआ कि गान्धारीका भाई उसे हयपुरीके राजा सुमुखको दे रहा है तब वे शीघ्र ही जाकर रणांगण में प्रतिकूल . हिमगिरिको मारकर गान्धारीको हर लाये एवं उस सौम्यमुखी के साथ विवाह कर बहुत हर्षित हुए ||४७-४८। उन्होंने पद्मावती के महलके समीप गान्धारीके लिए उत्तम महल दिया और उस धैर्यशालिनीको उत्तम भोगोंसे सम्मानित किया ||४९ || इस प्रकार जो वशीकृत आठ दिशाओंके समान उन आठ इष्ट पट्टरानियोंसे अन्तःपुर में सदा सेवित रहते थे, जो पुण्यरूपी वृक्षसे उत्पन्न भोगरूपी विशाल फलका उपभोग करते थे, जन-समूहको आनन्द प्रदान करते थे, एवं प्रबल पराक्रम के धारक थे ऐसे श्रीकृष्ण समृद्धिको प्राप्त हुए ||५०-५१ ।। गौतमस्वामी
१. अरं शीघ्रम् । २. नारदात् + अरम् + आगतात् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org