________________
हरिवंशपुराणे
सखीनामभवत्तङ्गस्तत्र चाक्रन्दनस्वनः । समीपशिविरव्यापी कन्याहरणकारणः ॥१२॥ श्रत्वा कन्यापिता क्रद्धः खड्गोद्यतकरः खगेट । खमुत्पत्य लघु प्राप्तः कनत्खेटकहस्तकः ॥१३॥ अनावृष्टिस्ततस्तस्य खेटको खड्गपाणिकम् । रणातिथ्यं स खे कृत्वा बबन्ध खचराधिपम् ॥१४॥ आनीय नीतिविद्वीरो विष्णवे तमदर्शयत् । सूनुं जामातरि न्यस्य स ययौ तपसे वनम् ॥१५॥ जाम्बवत्या विवाहेन परमानन्दमाश्रितः । विश्वक्सेनयुतो विष्णुभरिकामगमन्निजाम् ॥१६॥ प्रासादस्योपकण्ठे च रुक्मिण्या मुदितात्मनः । प्रासादं प्रददौ दिव्यं जाम्बवत्यै जनार्दनः ॥१७॥ संमान्य भ्रातरं तस्या विसृज्य निजमास्पदम् । अरीरमदिमा भोगी भोगै तलदुर्लभैः ।।१८।। परस्परगृहाजवगत्यागमनवर्धिता । रुक्मिणीजाम्बवत्याः प्राग्जाता प्रीतिरखण्डिता ॥१९॥ श्लक्षणधीः श्लक्ष्णरं माख्यो राजाभूसिंहलेश्वरः । तद्वशीकृतये शौरिर्जातु दूतमजीगमत् ।।२०।। गत्वागत्याशु दूतस्तं प्रतिकूलमवेदयत् । लक्ष्मणां लक्षणोपेतां तत्कन्यो चापि शाङ्गिणः ॥२१।। सत्वरं स ततो गवा हलिना सह संमदी । समुद्र स्नातुमायातामद्राक्षीदायतेक्षणाम् ।।२२।। द्रुमसेनं महावीयं हत्वा सेनापतिं युधि । हृत्वा चेतः स्वरूपेण रूपिणीमहरत्पुनः ॥२३॥ उपयम्य समानीय लक्ष्मणां लक्ष्मणप्रभुः । जाम्बवत्या गृहाभ्यर्णगृहे रमयति स्म ताम् ॥२४॥
लाये ॥११॥ उसी समय वहाँ कन्या हरणके कारण उसकी सखियोंका जोरदार रोनेका शब्द हआ जो समीपवर्ती शिविरमें फैल गया ॥१२॥ शब्दको सुन, क्रोधसे भरा कन्याका पिता विद्याधरोंका राजा जाम्बव. हाथमें तलवार और देदीप्यमान ढाल ले आकाश-मार्गसे चलकर शीघ्र ही वहां आ पहुंचा ॥१३।। उसे आया देख आकाशगामी अनावृष्टिने आकाशमें कुछ देर तक तो उसका युद्धके द्वारा अतिथि-सत्कार किया। तदनन्तर हाथमें तलवारको धारण करनेवाले उस विद्याधर राजा जाम्बवको उसने बाँध लिया ॥१४॥ नीतिके ज्ञाता वीर अनावृष्टिने उसे लाकर श्रीकृष्णको दिखाया। इस घटनासे राजा जाम्बवको वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे वह अपने पुत्र विश्वक्सेनको श्रीकृष्णके अधीन कर तपके लिए वनको चला गया ॥१५॥ जाम्बवतीके विवाहसे परम आनन्दको प्राप्त हुए श्रीकृष्ण विश्वक्सेनको साथ ले अपनी द्वारिका नगरीको चले गये ॥१६॥ जाम्बवतीके आगमनसे रुक्मिणीको भी हर्ष हुआ, इसलिए श्रीकृष्णने रुक्मिणोके महलके समीप ही जाम्बवतीके लिए सुन्दर महल दिया ॥१७॥
जाम्बवतीके भाई विश्वक्सेनका सम्मान कर उसे अपने स्थानपर विदा किया और पृथिवीतलमें दुर्लभ भोगोंसे जाम्बवतीके साथ कोड़ा करने लगे ॥१८॥ रुक्मिणी और जाम्बवतीमें जो प्रोति प्रथम उत्पन्न हुई थो वह परस्पर एक-दूसरेके महलमें आने-जानेसे बढ़ती गयी तथा अखण्ड रूपमें परिणत हो गयी ॥१९॥
उसी समय सिंहलद्वीपमें सूक्ष्मबुद्धिका धारक श्लक्ष्णरोम नामका राजा रहता था। उसे वश करने के लिए किसी समय कृष्णने अपना दूत भेजा ॥२०॥ दूतने वहां जाकर और शीघ्र ही वापस आकर श्रीकृष्णको उसके प्रतिकूल होनेको खबर दी और साथ ही यह भी खबर दी कि उसके उत्तम लक्षणोंसे युक्त एक लक्ष्मणा नामकी कन्या है ।।२१।। तदनन्तर हर्षसे युक्त श्रीकृष्ण बलदेवके साथ शीघ्र ही वहां गये। वहाँ जाकर उन्होंने स्नान करनेके लिए समुद्र में आयी हुई दीर्घलोचना लक्ष्मणाको देखा ॥२२।। तदनन्तर अपने रूपसे उसके चित्तको हरकर और महाशक्तिशाली द्रुमसेन नामक सेनापतिको युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उस रूपवती लक्ष्मणाको हर लाये ॥२३।। द्वारिकामें लाकर उसके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और जाम्बवतीके महलके समीप उसे महल
१. समुत्पत्य म. । २. सुरूपेण घ. । ३. स रमतिस्म क., ख., ग. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org