________________
५१८
हरिवंशपुराणे गृहीत्वा करुणोपेतः प्रियायै दातुमुद्यतः । तनयस्तेऽनपत्याया गृहाणेति प्रियंवदः ॥५३॥ प्रसार्य करयुग्मं सा पुनः संकोच्य कोविदा । अनिच्छन्तीव संतस्थे खेचरी दीर्घदर्शिनी ॥५४॥ प्रिये ! किमिदमित्युक्ते सा जगौ तव सूनवः । महाभिजनसंपन्नाः सन्ति पञ्चशतानि ते ॥५५॥ तैरज्ञातकुलं दृप्तैस्ताब्यमानं शिरस्य मुम् । न शक्नोमि तदा द्रष्टुं तन्मे वरमपुत्रता ॥५६॥ इत्युक्त सान्त्वयित्वा तां गृहीत्वा कर्णपत्रकम् । युवराजोऽयमित्युक्त्वा पट्टमस्य बबन्ध सः ॥५७।। ततो जग्राह तुष्टा सा तनयं नयशालिनी । सपुत्रौ तौ प्रविष्टौ च मेघकूटपुरं परम् ।।५८॥ गूढगर्भा महादेवी प्रसूता तनयं शुभम् । इति वात्तां पुरे कृत्वा कोविदः कालसंवरः ॥५९।। नृत्य द्विद्याधरीवृन्दै सिञ्जसिञ्जीरबन्धुरम् । तस्य पुण्यनिधानस्य जन्मोत्सवमकारयत् ॥६०॥ प्रकृष्टद्युम्नधामत्वात् प्रद्युम्न इति संज्ञितः । कुमारो वर्द्धते तत्र कुमारशतसेवितः ॥६॥ इतश्च रुक्मिणी सूनुं विबुद्धा नेक्षते यदा । वृद्धधात्रीभिरित्युच्चः सह द्रष्टं ततस्तदा ॥१२॥ विललाप च हा पुत्र ! हृतः केनापि वैरिणा । विधिना निधिमादय नेत्रं मेऽपहृतं कथम् ॥६३।। वियोजिता मया नूनमपत्येन भवान्तरे । काचन स्त्री न हीदृकं भवेरफलमहेतुकम् ॥६४॥ विलापमिति कुर्वन्त्यां रुक्मिण्यां करुणावहम् । रोदनध्वनिरुत्तस्थौ परिवारस्य मांसलः ॥६५॥
वाला एवं सुवर्ण के समान कान्तिमान् वह बालक देखा ॥५२॥ दयासे युक्त हो कालसंवरने उस बालकको उठा लिया और 'तुम्हारे पुत्र नहीं है इसलिए यह तुम्हारा पुत्र हुआ, लो' इस प्रकार मधुर शब्द कहकर अपनी प्रियाको देनेके लिए उद्यत हुआ ।।५३।। पहले तो विद्याधरी कनकमालाने दोनों हाथ पसार दिये पर पीछे चतुर एवं दूर तक देखनेवाली उस विद्याधरीने अपने हाथ संकोच लिये और इस प्रकार खड़ी हो गयी मानो पुत्रको चाहती ही न हो ॥५४॥ 'प्रिये ! यह क्या है ?' इस प्रकार पतिके कहनेपर उसने कहा कि आपके उच्च कुलमें उत्पन्न हुए पांच सौ पुत्र हैं ॥५५॥ सो जब वे इस अज्ञात कुलवाले पुत्रको अहंकारसे उन्मत्त हो शिरमें थप्पड़ मारेंगे तब मैं वह दृश्य देखनेको समथं न हो सकूँगी इसलिए मेरा निपूती रहना ही अच्छा है ॥५६॥
रानीके इस प्रकार कहनेपर कालसंवरने उसे सान्त्वना दी और कानका सूवर्ण-पत्र ले 'यह युवराज है' ऐसा कहकर उसे पट्ट बाँध दिया ॥५७।। तदनन्तर नीति-निपुण कनकमालाने सन्तुष्ट होकर वह पुत्र ले लिया। और पुत्रसहित दोनों मेघकूट नामक श्रेष्ठ नगरमें प्रविष्ट हुए ॥५८॥ अतिशय निपुण राजा कालसंवरने नगरमें यह घोषणा कराकर कि 'गूढ गर्भको धारण करनेवाली महादेवी कनकमालाने आज शुभ पुत्रको जन्म दिया है' पुण्यके भण्डारस्वरूप उस पुत्र का जन्मोत्सव कराया। जन्मोत्सवमें विद्याधरियोंके समूह नृत्य कर रहे थे और उनके नूपुरोंकी रुनझन न्यारी ही शोभा प्रकट कर रही थी ॥५९-६०॥ स्वर्णके समान श्रेष्ठ कान्तिका धारक होनेसे उसका प्रद्युम्न नाम रखा गया। वहां सैकड़ों विद्याधर-कुमारोंके द्वारा सेवित होता हुआ वह प्रद्युम्नकुमार दिनों-दिन बढ़ने लगा ॥६॥
_ इधर द्वारिकापुरीमें जब रुक्मिणी जागृत हुई तो उसने पुत्रको नहीं देखा। तदनन्तर वृद्ध धायोंके साथ उसने उसे जहाँ-तहाँ देखा पर जब प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह जोर-जोरसे इस प्रकार विलाप करने लगो कि हाय पुत्र ! तुझे कौन हर ले गया है ? विधाताने मेरे नेत्रोंको निधि दिखाकर क्यों छीन ली है ? अवश्य ही मैंने दूसरे जन्ममें किसी स्त्रीको पुत्रसे वियुक्त किया होगा नहीं तो कारणके बिना यह ऐसा फल कैसे प्राप्त होता ? ॥६२-६४॥ रुक्मिणीके इस प्रकार करुण विलाप करनेपर परिवारके लोग भी रोने लगे और इस तरह रोनेका एक जोरदार शब्द उठ खड़ा हुआ ॥६५॥ १. शान्तयित्वा म. । २. पुरम् म.। ३. वृन्दं सिञ्जत् म., ग. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org