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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
५१७ तस्यामेव च वेलायो बलवान् नमसा व्रजन् । धूमकेतुर्विमानस्थो धूमकेतुरिवासुरः ॥३९॥ स्तम्भितेन विमानेन कथंचिदपि विस्मितः । अधोऽवलोकमानोऽसौ विभङ्गज्ञानलोचनः ॥४०॥ रुक्मिण्याः सुतमालोक्य रोषाऽरुणनिरीक्षणः । दर्शनेन्धनसंदीप्तपूर्ववैरविभावसुः ॥४१॥ महारक्षाधिकारस्य परिवारजनस्य सः । रुक्मिण्याश्च महानिद्रां निपात्यापत्यपातकः ॥४२॥ शिशुमुद्धत्य बाहुभ्यां महीध्रमिव गौरवात् । नमः समुद्ययौ नीलो 'नीलबुद्धिमहासुरः ॥४३॥ हस्ताभ्यां किमु मृदुनामि पूर्ववैरिगमेनकम् । खगेभ्यो नखनिर्भिन्नं खे वलि विकिमि किम् ॥४४॥ नक्रचक्रमहारौद्रे मकरग्राहसंकुले । पातयामि समुद्रे किं भद्रं मे द्रोहिणं रिपुम् ॥४५॥ अथवा मांसपिण्डेन मारितेनामुनाऽत्र किम् । त्यतश्चापेतरक्षस्तु स्वयमेव मरिष्यति ॥४॥ इति संचिन्त्य पुण्येन शिशोरेव महासुरः । पश्यन्नवततारातो विदूरखदिराटवीम् ।।४।। अधस्तक्षशिलायास्तं निधायाकमाशु सः। धूमकेतुरिवादृश्यो धूमकेतुरभूत्ततः ॥४८॥ तदनन्तरमेवात्र मेघकूटपुराधिपः । कालसंवर इत्याख्यः साद्धं कनकमालया ॥४९॥ प्राप्तो मौमविहारेण विमानेन वियच्चरः । शिशोस्तस्य प्रभावेण खण्डितास्य गतिस्तदा ॥५०॥ किमेतदित्यसौ ध्यात्वा परं विस्मयमागतः । अवतीर्य शिलां पृथ्वीमुच्छवसन्तीं व्यलोकत ॥५१॥ समुक्षिप्य शिलो स्वरमपसार्य स दृष्टवान् । अक्षताङ्गमनगाभमभकं कनकप्रभम् ॥५२॥
सत्यभामाके पुत्रोत्पत्तिका समाचार सुनाया जिससे सन्तुष्ट होकर कृष्णने उन्हें भी पुरस्कारमें धन दिया ॥३८॥
उसी समय अग्निके समान देदीप्यमान धूमकेतु नामका एक महाबलवान् असुर विमानमें बैठकर आकाशमार्गसे जाता हुआ रुक्मिणीके महलपर आया ॥३९।। आतेके ही साथ उसका विमान रुक गया जिससे कुछ आश्चर्यमें पड़कर वह नीचेकी ओर देखने लगा। वह विभंगावधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाला था ही इसलिए उसके द्वारा रुक्मिणीके पुत्रको देख क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये और दर्शनरूपी ईन्धनसे उसकी पूर्व वैररूपी अग्नि भड़क उठी। उस
आते ही कडी रक्षामें नियक्त पहरेदारोंको, परिवारके लोगोंको तथा स्वयं रुक्मिणीको महानिद्रामें निमग्न कर पुत्रको उठा लिया और वजनमें पर्वतके समान भारी उस पुत्रको दोनों भुजाओंसे लेकर वह मलिनबुद्धि एवं श्यामरंगका धारक महाअसुर आकाशमें उड़ गया ॥४०-४३।। आकाशमें ले जाकर वह विचार करने लगा कि इस पूर्व भवके वैरीको क्या मैं हाथोंसे मसल डालू ? या नखोंसे चीरकर आकाशमें पक्षियोंके लिए इसकी बलि बिखेर हूँ ? अथवा मुझसे द्रोह करनेवाले इस क्षुद्र शत्रुको नाकोंके समूहसे महाभयंकर एवं मगरों और ग्राहोंके समूहसे भरे हुए समुद्रमें गिरा दूँ ? अथवा यह मांसका पिण्ड तो है ही । इसके मारनेसे क्या लाभ है ? यह रक्षकोंसे रहित ऐसा ही छोड़ दिया जायेगा तो अपने-आप मर जायेगा ।।४४-४६।। बालकके पुण्यसे इस प्रकार विचार करता वह महासुर जा रहा था कि दूरसे खदिर अटवीको देख वह नीचे उतरा ॥४७॥ और वहाँ तक्षशिलाके नीचे उस बालकको रखकर वह धूमकेतु नामका असुर, धूमकेतु ताराके समान शीघ्र ही अदृश्य हो गया ।।४८।।
तदनन्तर उसी समय मेघकूट नगरका राजा कालसंवर, अपनी कनकमाला रानीके साथ पृथिवीके समस्त स्थलोंपर विहार करता हुआ विमान-द्वारा आकाश-मागसे वहां आया सो बालकके प्रभावसे उसकी गति रुक गयी ॥४९-५०|| 'यह क्या है' इस प्रकार विचारकर कालसंवर परम आश्चर्यको प्राप्त हआ। नीचे उतरकर उसने हिलती हुई एक बडी मोटी शिला देखी ॥५॥ स्वेच्छासे शिला हटाकर जब उसने देखा तो उसके नीचे अक्षत शरीर, कामदेवके समान आभा१. मलिनाशयः । २. पक्षिम्यः । ३. त्यक्तश्चापदरक्षस्तु म.। ४. विशालाम् ।
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