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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
कालं कृत्वा युवां जातौ जातिगौरवगवितौ । अग्निभूतिर्मरुभूतिः सोमदेवस्य देहजी ||१२० || पापपाकेन दौर्गत्यं सौगत्यं पुण्यपाकतः । जीवानां जायते तत्र जातिगर्वेण किं वृथा ।। १२१|| प्राप्तः पामरको दृष्ट्वा क्रोष्टारौ नष्टजीवितौ । दृती कृत्वा कृती गेहे तिष्ठतोऽद्यापि तद्वृती ॥१२२॥ सोऽपि 'मृत्वा सुतस्यैव सुतो भूत्वातिमानवान् । जातिस्मरः स्मरच्छायो मृषा मूक इव स्थितः ।। १२३ ।। स एष बन्धुमध्यस्थो मामतीव विलोकते । इत्युक्त्वाहूय तं मूकं सात्यकिः सत्यवाग् जगौ ||१२४।। स एवं पामरको विप्रः प्राप्तस्तोकस्य तोकत । म् । शोकं च मूकभावं च मुञ्च मुञ्च वचोऽमृतम् ॥१२५॥ जायतेऽत्र नटस्येव संसारे स्वाभिभृत्ययोः । पितृपुत्रकयोर्मातृभार्ययोश्च विपर्ययः ।। १२६ ।। घटीयन्त्रघटीजाले जटिले कुटिले भवे । उत्तराधर्यमायान्ति जन्तवः सततभ्रमाः ।।१२७।। इति विज्ञाय निस्सारं घोरं संसारसागरम् । कुरु पुत्र ! दयामूलं व्रताख्यं सारसंग्रहम् ॥ १२८ ॥ इति साक्षात्कृते तेन प्रत्यये यतिना द्विजः । पपात पादयोस्तस्य प्रदक्षिणपुरःसरम् ||१२९ ।। आनन्दास्र परीताक्षः पुनरुत्थाय विस्मयी । जगाद गद्गदालापः कृताञ्जलिपुटालिकः ।। १३०॥ अहो सर्वज्ञकल्पस्त्वं वस्तुनस्तत्त्वमीश्वरः । अत्रैस्थः पश्यसि स्पैष्टं जगस्त्रितयगोचरम् ॥१३१॥ उन्मीलितं मनोनेत्रमज्ञानपटलाविलम्। त्वया नाथ ! ममेहाद्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।। १३२ ।।
और उसके फलस्वरूप मरकर वे सोमदेव ब्राह्मणके जातिके गर्वसे गर्वित अग्निभूत और वायुभूति नामके तुम दोनों पुत्र हुए ||११९ - १२०|| पापके उदयसे प्राणियोंको दुर्गति मिलती है और पुण्यके उदयसे सुगति प्राप्त होती है इसलिए जातिका गर्व करना वृथा है ॥ १२१ ॥ वर्षा बन्द होनेपर जब किसान खेतपर पहुंचा तो वहाँ मरे हुए दोनों शृगालोंको देखकर उठा लाया और उनकी मशकॅ बनवाकर कृत-कृत्य हो गया। वे मशकें उसके घरमें आज भी रखी हैं ॥ १२२ ॥ तीव्र मानसे युक्त प्रवरक भी समय पाकर मर गया और अपने पुत्रके ही पुत्र हुआ। वह काम देवके समान कान्तिका धारक है तथा जाति स्मरण होनेसे झूठ-मूठ ही गूँगाके समान रहता है || १२३|| देखो, वह अपने बन्धुजनोंके बीच में बैठा मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहा है । इतना कहकर सत्यवादी सात्यकि मुनिराजने उस गूँगेको अपने पास बुलाकर कहा कि तू वही ब्राह्मण किसान अपने पुत्रका पुत्र हुआ है । अब तू शोक और गूंगेपनको छोड़ तथा वचनरूपी अमृतको प्रकट कर स्पष्ट बात-चीत कर अपने बन्धुजनोंको हर्षित कर ॥१२४ - १२५ ॥ इस संसार में नटके समान स्वामी और सेवक, पिता और पुत्र, माता तथा स्त्री में विपरीतता देखी जाती है अर्थात् स्वामी सेवक हो जाता है, सेवक स्वामी हो जाता है, पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र पिता हो जाता है, और माता स्त्री हो जाती है, स्त्री माता हो जाती है || १२६ ।। यह संसार रेंट में लगी घटियोंके जालके समान जटिल तथा कुटिल है । इसमें निरन्तर भ्रमण करनेवाले जन्तु ऊँच-नीच अवस्थाको प्राप्त होते ही हैं || १२७|| इसलिए हे पुत्र ! संसाररूपी सागरको निःसार एवं भयंकर जानकर दयामूलक व्रतका सारपूर्ण संग्रह कर ॥ १२८ ॥ इस प्रकार मुनिराजने जब उसके गूँगेपनका कारण प्रत्यक्ष दिखा दिया तब वह तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में गिर पड़ा || १२९ | | उसके नेत्र आनन्द के आंसुओंसे व्याप्त हो गये । वह बड़े आश्चयंके साथ खड़ा हो हाथ जोड़ मस्तकसे लगा गद्गद वाणीसे कहने लगा || १३० ||
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'भगवन्! आप सर्वज्ञके समान हैं, ईश्वर हैं, यहाँ बैठे-बैठे ही तीनों लोक सम्बन्धी वस्तुके यथार्थं स्वरूपको स्पष्ट जानते हैं ॥ १३१ ॥ हे नाथ ! मेरा मनरूपी नेत्र अज्ञानरूपी पटलसे मलिन हो रहा था सो आज आपने उसे ज्ञानरूपी अंजनकी सलाईसे खोल दिया
१. पुत्रस्य । २. पुत्रताम् । ३. अत्रेत्यं म. ग. । ४. स्पृष्टं म ।
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