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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
किमर्थमागतो भर्त्तरिहायमिति पृच्छते । मूलतः कथितं सर्वं चक्रिणे धर्मचक्रिणा ॥९५॥ प्रद्युम्न इति नाम्नाऽसौ पितृभ्यां योक्ष्यते पुनः । संप्राप्ते षोडशे वर्षे प्राप्तषोडशलामकः ॥ ९६ ॥ स प्रतिमहाविद्याप्रद्योतितपराक्रमः । देवानामपि सर्वेषामजय्योऽत्र भविष्यति ॥ ९७ ॥ कीदृशं चरितं तस्य हृतो वा केन हेतुना । इति पृष्टो जिनोऽभाणोत्तस्मै नारदसंनिधौ ॥ ९८ ॥
भारतवर्षेऽभूद्विषये मगधामिधे । शालिग्रामेऽग्रजन्मासौ सोमदेव इति श्रुतः ॥ ९९ ॥ अग्निला ब्राह्मणी तस्य स्वाहेवाग्नेः सुखावहा । अग्निभूतिरभूत्तस्या वायुभूतिश्च नन्दनः ॥ १०० ॥ भूमौ भूमौ वेदवेदार्थकोविदौ । छादितान्यद्विजच्छायौ यथा शुक्रबृहस्पती ॥१०१॥ वेदार्थ मावना जातजातिवादातिगवितौ । वाचाटौ चाटुभिः पित्रोर्लालितौ भोगतत्परौ ॥ १०२ ॥ द्विवर्ष स्त्रीषु स्वर्गत्रुद्धिं प्रकृत्य तौ । जातावस्यन्तविद्विष्टौ परलोककथां प्रति ॥ १०३ ॥ अन्यदागस्य संघेन महता नन्दिवर्द्धनः । तत्रोद्याने गुरुस्तस्थौ श्रुतसागरपारगः ||३०४ || तद्वन्दनार्थमद्वन्द्वं चातुर्वर्ण्य महाजनम् । निर्गच्छन्तं समालोक्य कारणं तावपृच्छताम् || १०५ ।। निवेदितं ततस्ताभ्यां द्विजेनैकेन साधुना । महच्छ्रमणसंघस्य वन्दनार्थमिति स्फुटम् ॥१०६॥ अस्मत्परः परः कोऽपि वन्दनीयोऽस्ति भूतले । पश्यामस्तस्य माहात्म्यमिति तौ मानिनौ गतौ ।। १०७ ॥
यह सुन चक्रवर्तीने फिर पूछा कि हे स्वामिन् ! यह यहाँ किसलिए आया है ? इसके उत्तर में धर्मचक्र प्रवर्तक सीमन्धर भगवान्ने चक्रवर्ती के लिए प्रारम्भसे लेकर सब समाचार कहा । साथ ही यह भी कहा कि उस बालकका प्रद्युम्न नाम है। वह सोलहवाँ वर्ष आनेपर सोलह लाभोंको प्राप्त कर अपने माता-पिता के साथ पुनः मिलेगा। प्रज्ञप्ति नामक महाविद्यासे जिसका पराक्रम चमक उठेगा ऐसा वह प्रद्युम्न इस पृथिवीपर समस्त देवोंके लिए भी अजय्य हो जावेगा ।। ९५-९७ ।। चक्रवर्तीने फिर पूछा - 'प्रभो ! प्रद्युम्नका चरित कैसा है ? और वह किस कारण से हरा गया ?' इसके उत्तर में सीमन्धर जिनेन्द्रने चक्रवर्ती के लिए नारदके सन्निधानमें प्रद्युम्नका निम्न प्रकार चरित कहा ||१८||
भरतक्षेत्र सम्बन्धी मगध देशके शालिग्राम नामक गांव में सोमदेव नामका एक ब्राह्मण रहता था || ९९|| अग्निकी स्वाहाके समान उसकी अग्निला नामकी ब्राह्मणी थी जो उसे बहुत ही सुख देनेवाली थी । उस ब्राह्मणीसे सोमशर्मा के अग्निभूति और वायुभूति नामके दो पुत्र हुए ॥१००॥ ये दोनों ही पुत्र, पृथिवीपर वेद तथा वेदार्थ में अत्यन्त निपुण हो गये । इन्होंने अपने प्रभावसे अन्य ब्राह्मणोंकी प्रभाको आच्छादित कर दिया तथा शुक्र और बृहस्पति के समान देदीप्यमान होने लगे || १०१ ॥ वेदार्थको भावनासे उत्पन्न जातिवादसे गर्वित, बकवास करनेवाले, माता-पिता के प्रिय वचनोंसे पले-पुसे ये दोनों पुत्र भोग-वासनामें तत्पर हो गये । जब वे सोलह वर्ष के हुए तो स्त्रियोंको ही स्वर्गं समझने लगे और परलोककी कथासे अत्यन्त द्वेष करने लगे ॥ १०२ - १०३ ॥
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तदनन्तर किसी समय श्रुतरूप सागरके पारगामी नन्दिवर्धन नामके गुरु विशाल संघ के साथ आकर शालिग्राम के बाहर उपवनमें ठहर गये ||१०४ ॥ चारों वर्णके महाजन आकुलतारहित हो उनकी वन्दना के लिए जा रहे थे सो उन्हें देख दोनों ब्राह्मण-पुत्रोंने उसका कारण पूछा || १०५ ॥ तदनन्तर एक सरलस्वभावी ब्राह्मणने उन्हें स्पष्ट बताया कि मुनियोंका एक बड़ा संघ आया है । उसीकी वन्दना के लिए हम लोग जा रहे हैं ॥ १०६ ॥ ब्राह्मणका उत्तर सुन दोनों पुत्र विचारने लगे कि 'पृथिवीतलपर हम लोगोंसे बढ़कर दूसरा वन्दनीय है ही कौन ? चलो हम भी उसका माहात्म्य देखें इस प्रकार विचारकर मानसे भरे दोनों पुत्र उपवनकी ओर चले ||१०७|| १. पृच्छति म. । २. 'महाश्रमण संघस्य' इति सुष्ठु भाति ।
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