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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
ततो विदितवृत्तान्तो वासुदेवः सबान्धवः । संप्राप्य सहसा तत्र कलत्रः 'सुकलत्रिभिः || ६६ || आक्रन्दनस्वनप्राप्तसंक्रन्दनपुरःसरः । निनिन्द भुजवीर्यं स्वं प्रमादं च सनन्दकः ||६७ || अवदच्च वचो दक्षो दैवपौरुषयोः परम् । दैवमेव परं लोके धिक् पौरुषमकारणम् ||६८|| अन्यथा कथमुत्खातखड्गधारावभासिनः । हियेत वासुदेवस्य ममापि तनयः परैः || ६९|| इत्यादि बहुवादी स रुक्मिणीमाह मा प्रिये । शोकिनी भूरिहात्यर्थं धीरे ! धारय धीरताम् ॥७०॥ नाल्पः कल्पच्युतः पुत्रो जातस्तव ममापि यः । भवितव्यमिहैतेन भुवने भोगभागिना ॥७१॥ गवेषयामि तल्लोके तं लोकनयनोत्सवम् । सूक्ष्मदृष्टिरिवोबिम्बं प्रतिपञ्चन्दमम्बरे ॥७२॥ सान्त्वयित्वा संघौतकपोलयुगलां प्रियाम् । माधवोऽन्वेषणे सूनोरुपायपरमोऽभवत् ॥ ७३ ॥ काले तत्र हरिं प्राप्तो नारदोऽनारतोद्यमः । श्रुतवार्त्तश्च शोकेन क्षणं निश्चलतां गतः ॥७४॥ आननानि यदूनां स पश्यति स्म सविस्मयः । क्लान्तानि हिमदग्धानि पद्मानीव समन्ततः ॥ ७५ ॥ ततो निरस्तमन्युश्च प्रत्युवाच जनार्दनम् । वीर ! शोककलिं मुञ्च सुतवार्त्तामहं लभे ॥७६॥ योsतिमुक्तक इत्यासीदवधिज्ञानवान् मुनिः । स केवलमयं नेत्रं लब्ध्वा निर्वाणमाश्रितः ॥७७॥ aist नेमकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचनः । जानन्नपि न स ब्रूयान्न विद्मो केन हेतुना ॥ ७८ ॥ अतः पूर्वविदेहेषु गत्वा सीमन्धरं जिनम् । संपृच्छ्य पुत्रवात ते प्रापयामीति नारदः ॥७९॥ दत्तोत्तरो विनिर्गत्य रुक्मिणीभवनं गतः । शोकप्रालेयनिर्दग्धं दृष्ट्वा तन्मुखपङ्कजम् ॥८०॥
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तदनन्तर सब वृत्तान्त जानकर भाई- बान्धवों एवं अन्य सुन्दर स्त्रियोंके साथ कृष्ण भी वहाँ शीघ्र आ पहुँचे । रोनेका शब्द सुनकर बलदेव भी आ गये। अपने नन्दक नामक खड्गको हाथ में लिये श्रीकृष्ण अपनी भुजाओंके पराक्रम तथा अपने प्रमादको निन्दा करने लगे || ६६-६७ || वचन बोलने में अतिशय चतुर श्रीकृष्ण कहने लगे कि 'दैव और पुरुषार्थमें देव हो परम बलवान् है । संसार में इस अकारण पुरुषार्थको धिक्कार है || ६८ || अन्यथा उभारी हुई तलवारकी धारासे सुशोभित मुझ वासुदेवका भी पुत्र दूसरोंके द्वारा किस प्रकार हरा जाता ?" ॥ ६९ ॥ इत्यादि बहुत बोलनेवाले श्रीकृष्णने रुक्मिणीसे कहा कि 'हे प्रिये ! इस विषय में अधिक शोकयुक्त न होओ। हे धीरे ! धीरता धारण करो ||७० || जो पुत्र स्वर्गं से च्युत हो तुम्हारे और हमारे उत्पन्न हुआ है वह साधारण पुत्र नहीं है । उसे इस संसार में अवश्य ही भोगोंका भोगनेवाला होना चाहिए || ७१ || इसलिए जिस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि मनुष्य आकाशमें सूक्ष्म विम्बको धारण करनेवाले प्रतिपदाके चन्द्रमाको खोजते हैं उसी प्रकार में लोगोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले तेरे पुत्रको लोक में सर्वत्र खोजता हूँ ॥७२॥
इस प्रकार आँसुओंसे जिसके दोनों कपोल धुल रहे थे ऐसी प्रिया रुक्मिणीको शान्त कर श्रीकृष्ण पुत्रके खोजने में उपाय करने लगे ||७३ | | उसी समय निरन्तर उद्यम करनेवाले नारद ऋषि वहाँ श्रीकृष्णके पास आये और सब समाचार सुनकर शोकसे क्षणभरके लिए निश्चलताको प्राप्त हो गये ||७४|| उन्होंने सब ओर तुषारसे जले कमलोंके समान मुरझाये हुए यादवोंके मुख बड़े आश्चर्यके साथ देखे ||७५ ।। तदनन्तर शोक दूर कर नारदने कृष्णसे कहा कि 'हे वीर ! शोक छोड़ो, मैं पुत्रका समाचार लाता हूँ ||७६ || यहाँ जो अवधिज्ञानी अतिमुक्तक मुनिराज थे वे तो केवलज्ञानरूपी नेत्रको प्राप्त कर मोक्ष जा चुके हैं ||७७|| और जो तीन ज्ञानके धारक नेमिकुमार हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे । किस कारणसे नहीं कहेंगे ? यह हम नहीं जानते। इसलिए मैं पूर्वविदेह क्षेत्र में जाकर तथा सीमन्धर भगवान् से पूछकर पुत्रका सब समाचार तेरे लिए प्राप्त कराऊँगा' ||७८-७९ ॥ श्रीकृष्णका उत्तर पा नारद वहाँसे निकल रुक्मिणीके भवन पहुँचे और १. सुनितम्बयुक्तैरित्यर्थः । सकलत्रिभिः म. ग. । २. नन्दकनामखड्गसहितः । ३ तल्लोकं म. ।
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