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हरिवंशपुराणे ज्ञातसंसारनिःसारा सम्यक्त्वपरिभाविता । सितैकवसना कन्या प्रावजन्नवयौवना ॥१५७॥ अनुष्ठाय चिरं श्रेष्टं श्रावकवतमुत्तमम् । संलिख्य भ्रातरौ जातौ सौधर्मे सुरसत्तमौ ॥१५॥ घ्युत्वा पुनरयोध्यायां हेमनामस्य भूपतेः । धरावत्यां सुतौ भूतौ मधुकैटभनामको ॥१५९॥ अभिषिच्य मधं राज्ये यौवराज्ये च कैटमम् । हेमनामो महाभागो व्रतं जैनेन्द्रमग्रहीत् ॥१६॥ मधुकैटभवीरौ तावेकवीरौ धरातले । भूतावद्भुततेजस्कौ सूर्याचन्दमसाविव ॥१६॥ अक्षुण्णः क्षुद्रसामन्तैरन्धकार इवैतयोः । गिरिदुर्गमुपाश्रित्य भीमकः प्रत्यवस्थितः ॥१२॥ तद्वशीकरणार्थ तौ चेलतुर्मधुकैटमौ । प्राप्तौ वटपुरं यत्र वीरसेनोऽवतिष्ठते ॥१६॥ अभ्युद्गतेन तेनासौ प्रीतेन मधुरादरात् । सान्तःपुरेण वीरेण स्वामिभक्स्यातिमानितः ॥१६॥ चन्द्रामा चन्द्रिकेवास्य मानिनी रूपमानिनी । अहरन्मधुराजस्य मनो मधुरमाषिणी १६५॥ शस्त्रशास्त्रकठोरापि चन्द्रामादर्शनान्मधोः । आर्द्रभावमगाद् बुद्धिश्चन्द्रकान्तशिला यथा ॥१६॥ राज्यं यदनया युक्तं रूपसौमाग्ययुक्तया । सुखाय तदहं मन्ये वियुक्तं तु विषोपमम् ॥१६॥ चन्द्रामयोपगूढस्य महोदयमहीभृतः। संपूर्णस्येव चन्द्रस्य कलकोऽप्यतिशोभते ॥१६॥
आकर उसे सम्बोधा ॥१५६।। जिससे संसारको असार जान सम्यक्त्वकी भावनासे युक्त उस नवयौवनवती राजपुत्रीने एक सफेद साड़ीका परिग्रह रख आयिकाको दीक्षा ली ॥१५७||
पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दोनों भाई चिरकाल तक श्रावकके उत्तम एवं श्रेष्ठ व्रतका पालन कर अन्तमें सल्लेखना द्वारा सौधर्म स्वर्गमें उत्तम देव हुए ॥१५८|| पश्चात् स्वर्गसे च्युत होकर अयोध्या नगरोके राजा हेमनाभकी धरावती रानीमें मधु और कैटभ नामक पुत्र हुए॥१५९।। तदनन्तर किसी दिन राज्यगद्दोपर मधुका और युवराजपदपर कैटभका अ कर महानुभाव राजा हेमनाभने जिनदीक्षा धारण कर ली ॥१६०॥ मधु और कैटभ पृथिवीतलपर अद्वितीय वीर हुए । वे दोनों सूर्य और चन्द्रमाके समान अद्भुत तेजके धारक थे ॥१६१॥
तदनन्तर जो क्षुद्र सामन्तोंके द्वारा वशमें नहीं किया जा सका था ऐसा अन्धकारके समान भयंकर भीमक नामका एक राजा पहाड़ी दुर्गका आश्रय पा मधु और कैटभके विरुद्ध खड़ा हुआ सो उसे वश करनेके लिए दोनों भाई चलें। चलते-चलते वे उस वटपुर नगरमें पहुंचे जहां वीरसेन राजा रहता था ॥१६२-१६३।। प्रसन्नतासे युक्त राजा वीरसेनने सम्मुख आकर बड़े आदरसे मधुकी अगवानी की और स्वामि-भक्तिसे प्रेरित हो अपने अन्तःपुरके साथ उसका खूब सम्मान किया ॥१६४॥
राजा वीरसेनकी एक चन्द्राभा नामकी स्त्री थी जो चन्द्रिकाके समान सुन्दर और मानवती थी। म
थी। मधर-मधर भाषण करनेवाली उस चन्द्राभाने राजा मधका मन हर लिया ॥१६५|| जिस प्रकार अत्यन्त कठोर चन्द्रकान्तमणिकी शिला, चन्द्रमाको देखनेसे, आर्द्रभावको प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार शस्त्र और शास्त्रोंके अभ्याससे अत्यन्त कठोर होनेपर भी मधु राजाकी बुद्धि चन्द्राभाको देखनेसे आर्द्रभावको प्राप्त हो गयी ॥१६६|| वह विचार करने लगा कि जो राज्य, रूप और सौभाग्यसे युक्त इस चन्द्राभासे सहित है उसे ही मैं सुखका कारण मानता हूँ और इससे रहित राज्यको विषके समान समझता हूँ ॥१६७॥ जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमाका कलंक भी सुशोभित होता है उसी प्रकार चन्द्राभाके द्वारा आलिंगित मुझ राजाधिराजका कलंक भी शोभा
। भावार्थ-परस्त्रीके सम्पर्कसे यद्यपि मेरा अपवाद होगा-मैं कलंकी कहलाऊँगा तथापि चन्द्रमाके कलंकके समान मेरा वह कलंक शोभाका ही कारण होगा ॥१६८॥ जिस प्रकार
१. सल्लेखनां कृत्वा । २. अक्षुद्रः म., ग. ।
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