________________
त्रिचत्वारिंशः सर्गः
५१५
निरूपय रुक्मिणी सत्या देवतामिव रूपिणीम् । देवतेयमिति ध्यात्वा विकीर्य कुसुमाञ्जलिम् ॥ १३ ॥ निपत्य पादयोस्तस्याः स्वसौभाग्यमयाचत । विपक्षस्य तु दौर्भाग्यमीयशल्यकलङ्किता ॥ १४॥ अन्तरेऽत्र हरिः सत्यां हारिस्मितमुखोऽवदत् । अपूर्वं दर्शनं स्वस्रोरहो वृत्तं नयान्वितम् ॥१५॥ श्रुत्वा तत्सत्यभामोचे ज्ञाततत्त्वा रुपान्विता । किं भवान्नयदिच्छं नौ दर्शनं किं तवेति तम् ॥ १६॥ कृतकृष्णवचा भामां रुक्मिणी विनयात्ततः । ननाम कुलजातानां विनयः सहजो मतः ॥ १७ ॥ विहृत्य चिरमुद्यानं लतामण्डपमण्डितम् । ताभ्यामघोक्षजो यातो निवृत्तो भवनं निजम् ॥ १८ ॥ ताभ्यामेकदिनौपम्यमनेकेषु दिनेष्वतः । तस्य यात्सु सुखाम्भोधिवत्तिः शौर्यशालिनः ॥१९॥ दुर्योधनोऽन्यदा दूतं हरये प्रियपूर्वकम् । प्रजिघाय धनस्नेहः स हास्तिनपुराधिपः ॥ २० ॥ यः प्रागुत्पत्स्यते यस्या रुक्मिणीसत्यभामयोः । सूनुरुत्पत्स्यमानायाः स वरो दुहितुर्मम ॥२१॥ इति दूतवचः श्रुत्वा प्रीतः संपूज्य तं हरिः । विससर्ज स पत्येऽतः कार्यसिद्धिं न्यवेदयत् ॥२२॥ तां वार्त्तामुपलभ्याऽसौ मामा ' भीष्मात्मजान्तिकम् । व्यसृजन्निजदूतीताः पादयोः प्रणता जगुः ॥२३॥ स्वामिनि ! स्वामिनी नस्त्वामिति वक्ति वचो वरम् । अवतंसमिव श्लाध्यं कुरु कर्णे मनस्विनी ॥ २४ ॥ आवयोः प्रथमं यस्यास्तनयोऽत्र भविष्यति । सुतां दुर्योधनस्यासौ भाविनीं परिणेष्यति ॥ २५ ॥
1
खड़ी थी। उस समय वह अपनी अतिशय सुशोभित बड़ी मोटी चोटी बायें हाथसे पकड़े थी । स्तनों के भारसे वह नीचेको झुक रही थी तथा ऊपर लगे हुए फलपर उसके बड़े-बड़े नेत्र लग रहे थे । देवीके समान सुन्दर रूपको धारण करनेवाली रुक्मिणीको देखकर सत्यभामाने समझा कि 'यह देवी है' इसलिए उसने उसके सामने फूलोंकी अंजलि बिखेरकर तथा उसके चरणोंमें गिरकर अपने सौभाग्य और सोतके दौर्भाग्यकी याचना की। वह ईर्ष्यारूपी शल्यसे कलंकित जो थी || ११ - १४ | इसी समय मन्द मन्द मुसकाते हुए श्रीकृष्णने आकर सत्यभामा से कहा कि अहा ! दो बहनों का यह नीतियुक्त अपूर्व मिलन हो लिया ? || १५ || श्रीकृष्ण के वचन सुन सत्यभामा सब रहस्य जान गयी ओर कुपित हो बोली कि अरे ! क्या आप हैं ? हम दोनोंका इच्छानुरूप दर्शन हो इसमें आपको क्या मतलब ? || १६ || तदनन्तर कृष्णके वचन स्वीकारकर रुक्मिणीने सत्यभामाको विनयपूर्वक नमस्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि उच्च कुल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के विनय स्वभावसे ही होता है ||१७|| श्रीकृष्ण लतामण्डपोंसे सुशोभित उद्यान में उन दोनों रानियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने महल में लौट गये || १८ ||
तदनन्तर सुखसागर में निमग्न एवं पराक्रमसे सुशोभित कृष्णके अनेक दिन उन दोनों रानियोंके साथ जब एक दिनके समान व्यतीत हो रहे थे तब एक दिन अत्यधिक स्नेह से युक्त हस्तिनापुरके राजा दुर्योधनने इस प्रिय समाचार के साथ कृष्णके पास अपना दूत भेजा कि 'आपकी रुक्मिणी और सत्यभामा रानियों में से जिसके पहले पुत्र उत्पन्न होगा वह यदि मेरे पुत्री उत्पन्न हुई तो उसका पति होगा ' ॥ १९ - २१ ॥ दूतके उक्त वचन सुनकर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूतका सम्मान कर उसे विदा किया। दूतने भी अपने स्वामी के लिए कार्य सिद्ध होने का समाचार कह सुनाया ||२२||
यह समाचार सुनकर सत्यभामाने रुक्मिणी के पास अपनी दूतियां भेजीं और वे रुक्मिणी के चरणों में नम्रीभूत हो कहने लगीं कि हे स्वामिनि ! हम लोगोंकी स्वामिनि -- सत्यभामा आपसे कुछ उत्तम वचन कह रही हैं सो हे मानवति ! आभरणकी तरह उस प्रशंसनीय वचनको आप कानमें धारण करें - श्रवण करें। वह वचन यह है कि 'हम दोनों में से जिसके पहले पुत्र होगा वह दुर्योधनकी होनहार पुत्रीको विवाहेगा यह निश्चित हो चुका है । उस विवाह के समय जिनके पुत्र
१. - दित्थं म । २. तवेरितं ग । ३. कृतकृष्णवचो भामा म ग । ४. भीष्मजान्तिकं म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org