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द्वाचत्वारिंशः सर्गः प्रभातपटहस्फुटध्वननशसंगीतकप्रघोषघनगर्जिताम्बुधिनिनादिनी द्वारिका । गृहं गृहमितोऽमुतो बुधितराजलोकामवद् यथायथमनुष्ठितस्वकनियोगसर्वप्रजा ॥१०॥ परैर्घटितमप्यतो विघटयन पदार्थ सटिस्युपेत्य 'घटयन्पटुर्विघटितं समर्थक्रियः । परं भुवनचक्षुरुज्ज्वलमनिद्रमभ्युद्यो यथा जिनवचःपयो विधिरिवाऽथ वा मानुमान् ॥१०८॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती रुक्मिणीहरणवर्णनो नाम
द्वाचत्वारिंशः सर्गः ॥४२॥
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स्पर्श पा श्रीकृष्ण भी जाग गये और जागकर उन्होंने रतिक्रीड़ाके कारण जिसके शरीरसे सुगन्धि निकल रही थी तथा जो लज्जासे नम्रीभूत थी ऐसी रुक्मिणीको पासमें बेठी लक्ष्मीके समान देखा ॥१०६|| उस समय द्वारिकापुरी प्रातःकालके नगाड़ोंके जोरदार शब्दों, शंखों, मधुर संगीतों
घोंकी उत्कृष्ट गर्जनाके समान समुद्रको गम्भीर गर्जनाके शब्दोंसे गूंज उठी। इधर-उधर घर-घर राजा और प्रजाके लोग जाग उठे तथा यथायोग्य अपने-अपने कार्योंमें सब प्रजा लग गयी ॥१०७।। तदनन्तर जो शीघ्र ही आकर दूसरोंके द्वारा संयोजित पदार्थको यहांसे दूर हटा रहा था, तथा दूसरोंके द्वारा वियोजित पदार्थको मिला रहा था, अत्यन्त चतुर था, समर्थ था, जगत्का उज्ज्वल एवं जागृत रहनेवाला उत्कृष्ट नेत्र था, जो जिनेन्द्र भगवान्के वचनमार्गके समान था अथवा विधाताके समान था ऐसा सूर्य उदयको प्राप्त हुआ। भावार्थ-रात्रिके समय चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र आदि कान्तिमान् पदार्थ अपने साथ अन्धकारको भी थोड़ा-बहुत स्थान दे देते हैं पर सूर्य आते ही साथ उस अन्धकारको पृथिवीतलसे दूर हटा देता है। इसी प्रकार रात्रिके समय चकवा-चकवी परस्पर वियुक्त हो जाते हैं परन्तु सूर्य उदय होते ही उन्हें मिला देता है॥१०८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें रुक्मिणी
हरणका वर्णन करनेवाला बयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४२॥
१. प्रतिपत्य दुर्विघटितं म., ख., घ., ङ. ।
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