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हरिवंशपुराणे
ततोऽञ्जनमहारजोमलिनमूर्त्तिभिर्मोहनैः प्रभञ्जनवशैरिव प्रतिभयावहैरुद्ध तैः । तमःपटलपातकैरभिपतद्भिरत्युन्मुखैः खलैरिव निरन्तरैर्जगदमिहुतं च द्रुतम् ॥१००॥ किरनमृतदीधितिर्बहुलमन्धकारं करैः तृषेव जनलोचनैः सपदि पीयमानस्ततः । जगन्मदन दीपनस्तपनजातसंतापनुत् सुखाय सुखिनामपि प्रकटमुज्जगामोदयम् ॥ १०१ ॥ विकास मगमद् विधोः कुमुदिनी करामर्शनाज्जगत्यखिलजन्तुभिः सह निजप्रियाप्रोषितैः । तदा न खलु पद्मिनी विरहदीप्तचक्राह्वयैरहो प्रमदहेतवोऽपि सुखयन्ति नो दुःखितान् ॥ १०२ ॥ प्रदोषसमये ततो मुषितमानिनीमान के प्रवृत्तवति दम्पतिप्रमदसंपदापादने । सुधाधवलचन्द्रिकाधवलितेषु हर्म्येषु ते मनोज्ञवनितासखास्तु परिरेभिरे यादवाः ॥ १०३ ॥ मुरारिरपि रुक्मिणीतनुलताद्विरेफस्तदा चिरं रमितया तयारमत रम्यमूत्तिनिशि । अशेत शयनस्थले मृदुनि गूढगूढाङ्गनाघेनस्तनभुजाननै स्पर्श लब्धनिद्रासुखः ॥ १०४॥ ततः प्रमितयामिनी निखिलयामभेदा मदप्रसुप्त यदुकामिनीजनमियेव नीचोच्चकैः । क्रमेण पटुपक्षपातसुभगाश्चुकूजुः कलं क्षपाक्षय निवेदिनो विविधचूडकाः कुक्कुटाः ॥ १०५ ॥ तथा प्रथमबुद्धया प्रथमसंध्य येवोषसि प्रशस्तकरपद्मया विहितदेहसंवाहनः । विबुध्य हरिराश्रितां श्रियमिव व्यलोकिष्ट तां रतिव्यतिकरस्फुरत्परिमलां हिया संनताम् ॥ १०६॥
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किया था इसलिए इस विपत्तिके समय मुझे भी इसके प्रति राग धारण करना चाहिए' यह विचारकर ही मानो सन्ध्याने सूर्यास्त के समय लालिमा धारण कर ली ||१९|| तदनन्तर अंजनकी महारजके समान काले, मोह उत्पन्न करनेवाले, प्रचण्ड पवनके समान भयंकर, उद्धत, सब ओर फैलनेवाले, उन्मुख एवं अन्तर-रहित अन्धकारके समूहरूपी पापोंसे जगत् शीघ्र ही ऐसा आच्छादित हो गया मानो दुर्जनोंसे ही व्याप्त हुआ हो ॥१००॥ तत्पश्चात् जो अपनी किरणोंसे गाढ़ अन्धकारको दूर हटा रहा था, मनुष्योंके नेत्र तृषासे पीड़ित होकर ही मानो जिसका शीघ्र पान कर रहे थे, जो जगत् के जीवोंको कामकी उत्तेजना करनेवाला था और जो सूर्यं से उत्पन्न हुए सन्तापको नष्ट कर रहा था ऐसा चन्द्रमा सुखी मनुष्योंके सुखको और भी अधिक बढ़ाने के लिए उदयको प्राप्त हुआ ॥ १०१ ॥ उस समय जगत् में समस्त जीवोंके साथ-साथ, चन्द्रमाकी किरणों के स्पर्शसे कुमुदिनी विकासको प्राप्त हुई और अपनी प्रियासे वियुक्त विरहसे देदीप्यमान चक्रवाकों के साथ-साथ कमलिनी विकासको प्राप्त नहीं हुई सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी मनुष्योंको हर्षंके कारण सुख नहीं पहुँचा सकते || १०२ || तदनन्तर मानवती: स्त्रियोंके मानको हरनेवाले एवं दम्पतियोंको हर्षरूपी सम्पत्ति के प्राप्त करानेवाले प्रदोष कालके प्रवृत्त होनेपर वे यादव अपनी सुन्दर स्त्रियोंके साथ चूनाके समान उज्ज्वल चांदनीसे शुभ्र महलोंमें क्रीड़ा करने लगे ॥१०३॥ जो रुक्मिणीके शरीररूपी लतापर भ्रमर के समान जान पड़ते थे ऐसे सुन्दर शरीरके धारक कृष्ण भी रात्रि के समय चिरकाल तक रमण की हुई रुक्मिणी के साथ क्रीड़ा करते रहे और क्रीड़ाके अनन्तर कोमल शय्यापर उसके गाढ़ आलिंगित स्थूल स्तन, भुजा और मुखके स्पर्शसे निद्रा सुखको प्राप्त कर सो रहे ||१०४ || तदनन्तर रात्रि के समस्त भेदोंको जाननेवाले, उत्तम पंखोंकी फड़फड़ाहटसे सुन्दर, रात्रिके अन्तकी सूचना देनेवाले और नाना प्रकारको क ँगियोंसे युक्त मुर्गे पहले नीची ओर बादमें ऊँची ध्वनिसे सुन्दर बांग देने लगे सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'मदमें सोयी हुई यदुं स्त्रियाँ जाग न जायें' इस भयसे ही वे एक साथ न चिल्लाकर क्रम-क्रम से चिल्लाते थे ।। १०५ || प्रातः कालमें प्रातः सन्ध्याके समान रुक्मिणी पहले जाग गयी और अपने उत्तम करकमलोंसे कृष्णका शरीर दबाने लगी। उसके कोमल हाथोंका
१. सखा सुमुखिनामपि म., ग, घ । २. जघनस्तन ग. । ३. अत्र छन्दोभङ्गः ।
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