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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
एवमस्त्विति संत्रस्तां सान्त्वयित्वा प्रियां हरिः । न्यवर्त्तयद्रथं वेगादभ्यमित्रं हली तथा ॥९१॥ रुष्टयोः शरजालेन द्विष्टसैन्यं ततोऽनयोः । श्लिष्टं ननाश विध्वस्त क्लिष्टदर्पमभिद्भुतम् ॥ ९२ ॥
हरिणेव रणे रौद्र हरिण दमघोषजः । हलिना भीष्मजो राजा भीष्माकारः पुरस्कृतः ॥९३॥ द्वन्द्वयुद्धे शिरस्तु शिशुपालस्य पातितम् । दिष्णुना यशसा साकं सायकेन विदूरतः ॥ ९४ ॥ हली जर्जरितं कृत्वा रथेन सह रुक्मिणम् । प्राणशेषमपाकृत्य कृती कृष्णयुतो ययौ ॥९५॥ रुक्मिणी परिणीयासौ गिरौ रैवतके हरिः । विभूत्या परया तुष्टः सबन्धुरविशत् पुरीम् ॥ ९६॥ स्वं विवेश गृहं शीरी रेवतीदर्शनोत्सुकः । शार्ङ्गपाणिरपि प्रीतो नववध्वा युतो निजम् ॥९७॥ पृथिवीच्छन्दः
अनेकरथचक्रचूर्णि विजिगीपुतेजोहरं निरीक्ष्य शिशुपालघाति चरितं हरेराहवे । वपुः स्वमुपसंहरन् करसहस्रतीक्ष्णोऽप्यरं गतोऽस्तगिरिगह्वरं ग्रहणशङ्कयेवांशुमान् ॥९८ ॥ अनेन घनरागिणा समनुवर्त्तिता रागिणी महोदयनिषेविणाप्यनुरतेन पूर्वं तु या । तयाऽस्तमितसंपदं तमनुवृत्तया संध्या कुसुम्भकुसुमामया तदनुरक्तता दर्शिता ॥ ९९॥
हे नाथ! आपके द्वारा युद्धमें मेरा भाई यत्नपूर्वक रक्षणीय है अर्थात् उसकी आप अवश्य रक्षा कीजिए ||१०|| 'ऐसा ही होगा' इस प्रकार भयभीत प्रियाको सान्त्वना देकर श्रीकृष्ण तथा बलभद्रने बड़े वेगसे शत्रुकी ओर अपने रथ घुमा दिये ॥ ९१ ॥ तदनन्तर रोषसे भरे हुए इन दोनों
बाणों समूहसे मुठभेड़ को प्राप्त हुई शत्रुकी सेना चारों ओर भागकर नष्ट हो गयी तथा उसका सब अहंकार नष्ट-भ्रष्ट हो गया || १२ || भयंकर युद्धमें सिंहके समान शूर-वीर कृष्णने शिशुपालको और बलदेवने भयंकर आकारको धारण करनेवाले भीष्मपुत्र राजा रुक्मीको सामने किया ॥९३॥ द्वन्द्व-युद्ध में श्रीकृष्ण ने अपने बाणके द्वारा यशके साथ-साथ शिशुपालका ऊँचा मस्तक दूर जा गिराया ||१४|| और बलदेवने रथके साथ-साथ रुक्मीको इतना जर्जर किया कि उसके प्राण ही शेष रह गये । तदनन्तर कुशल बलदेव कृष्णके साथ वहाँसे चल दिये ||९५ || रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर श्रीकृष्णने विधि पूर्वक रुक्मिणी के साथ विवाह किया और उसके पश्चात् उत्कृष्ट विभूति - से सन्तुष्ट हो भाई -बलदेवके साथ द्वारिकापुरीमें प्रवेश किया ||२६|| रेवतीके देखनेके लिए उत्सुक बलदेवने अपने महल में प्रवेश किया और प्रीतिसे युक्त कृष्णने भी नववधूके साथ अपने महल में प्रवेश किया ||९७||
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तदनन्तर सूर्य अस्त होनेके सम्मुख हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध में अनेक रथोंके चक्र को चूर्ण करनेवाला, विजिगीषु राजाओंके तेजको हरनेवाला एवं शिशुपालका घात करनेवाला कृष्णका चरित देखकर वह अपने आपके पकड़े जानेकी आशंकासे भयभीत हो गया था इसीलिए तो हजार किरणोंसे तीक्ष्ण होनेपर भी वह अपने शरीरको संकुचित कर अस्ताचलकी गुफा में चला गया था ||२८|| प्रातःकाल के समय राग ( प्रेम - पक्षमें ललाई ) से युक्त जिस सन्ध्याको सूर्यंने महाने उदय ( उदय - पक्ष में वैभव ) के धारक होनेपर भी तीव्र राग (प्रेम-पक्ष में ई) हो अपने बदलैके प्रेमसे अच्छी तरह अनुवर्तित किया था अर्थात् सन्ध्याको रागयुक्त देख अपने आपको भी रागयुक्त किया था उस सन्ध्याने अब सायंकाल के समय कुसुम्भके फूलके समान लाल वर्ण हो किरणरूप सम्पत्तिके नष्ट हो जानेपर भी सूर्यके प्रति अपनी अनुरक्तता दिखलायी थी । भावार्थ - 'सूर्यने महान् अभ्युदयसे युक्त होनेपर भी मेरे प्रति राग धारण
१. शान्तयित्वा म. । २. दस्य मित्रं म. । म. । ७ घात – म., ग. ।
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३. सिंहेनेव । ४. कृष्णेन । ५. शिशुपालः । ६. द्वन्द्वयुक्ते
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