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हरिवंशपुराणे
ततो हरिप्रेक्षणलब्धसौख्यां' हली समानीय समाप्तकार्याम् । प्रवेश्य साध्वीं मथुरां पुनस्तं न्यवेदयद्वृत्तमपि स्वपित्रे ॥ ६३ ॥ कलागुणान् प्रत्यहमेत्य दक्षमशिक्षय केशवमाशु शीरी । स्थिरोपदेशे प्रणते न शिष्ये गुरूपदेशाः क्षपयन्ति कालम् ॥ ६४ ॥ स बालभावात्सु कुमारभावस्तथैवमुद्भिन्नकुचाः कुमारः । सुयौवनोन्मादभराः 'सुरासैररीरमत्कैलिषु गोपकन्याः ॥६५॥ कराङ्गुलिस्पर्शसुखं स रासेष्वजीजनद्गोपवधूजनस्य । सुनिर्विकारोऽपि महानुभावो मुमुद्रिकानन्द मणिर्यथार्घ्यः ॥ ६६ ॥ यथा हरौ भूरिजनानुरागो जगाम वृद्धिं हृदि वृद्धिसूची । तथास्य तेने विरहानुरागो विहारकाले विरहातुरस्य ॥६७॥ द्विषं तमन्वेष्टुमितः प्रविष्टः स शङ्कया कंसरिपुः कदाचित् । व्रजं निजैरावजदच्युतोऽस्मात्पुरोऽभ्युपायाद्गमितो जनन्या ॥ ६८ ॥ सत्र स्पष्टकृताट्टहासां कुराक्षसी रुक्षनिरीक्षणास्याम् । अधोक्षजो वीक्ष्य विवृद्धकायां शरीरयष्ट्य विकृतां जघान ॥ ६९ ॥
अनुसार कार्य करनेमें कभी नहीं चूकते || ६२ || तदनन्तर कृष्णके देखनेसे जिसे सुख प्राप्त हुआ था और जिसके दुग्धाभिषेकका कार्य समाप्त हो चुका था ऐसी साध्वी माता देवकोको लाकर बलदेवने मथुरापुरी में प्रविष्ट कराया और इसके बाद उन्होंने यह समाचार अपने पिता वसुदेवके लिए भी सुनाया ॥ ६३॥
कृष्ण अत्यन्त चतुर थे अतः बलदेवने प्रतिदिन जा-जाकर उन्हें शीघ्र ही कलाओं और गुणोंकी शिक्षा दी थी सो ठीक ही है क्योंकि स्थिर रूपसे उपदेश ग्रहण करनेवाले विनयी शिष्य के मिलने पर गुरुओंके उपदेश व्यर्थं ही समय नहीं नष्ट करते अर्थात् शीघ्र ही उसे निपुण बना देते हैं ||६४|| कुमारके समान अत्यन्त निर्विकार अथवा अत्यन्त कोमल हृदयको धारण करनेवाले वह कुमार कृष्ण, क्रीड़ाओंके समय अतिशय यौवनके उन्मादसे भरी एवं प्रस्फुटित स्तनोंवाली गोपकन्याओं को उत्तम रासों द्वारा क्रोड़ा कराते थे || ६५ ॥ | वे रासक्रीड़ाओंके समय गोपबालाओंके लिए अपने हाथ की अंगुलियोंके स्पर्शसे होनेवाला सुख उत्पन्न कराते थे परन्तु स्वयं अत्यन्त निर्विकार रहते थे । जिस प्रकार उत्तम अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणि स्त्रीके हाथ की अंगुलिका स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है उसी प्रकार महानुभाव कृष्ण भी गोपबालाओंकी हस्तांगुलिका स्पर्श करते हुए भी निर्विकार रहते थे || ६६ || क्रीड़ाके समय कुमार कृष्ण से मिलने पर वृद्धिको सूचित करनेवाला मनुष्योंका अत्यधिक अनुराग जिस प्रकार हृदयमें वृद्धिको प्राप्त होता था उसी प्रकार उनके विरह्कालमें विरहसे पीड़ित मनुष्योंका विरहानुराग भी वृद्धिको प्राप्त होता था । भवार्थ - खेल के समय कृष्णको पाकर जिस प्रकार लोगोंको प्रसन्नता होती थी उसी प्रकार उनके अभाव में लोगों को विरहजन्य सन्ताप भी होता था ॥ ६७॥
कृष्णकी लोकोत्तर चेष्टाएँ सुन एक दिन कंसको इनके प्रति सन्देह हो गया और वह वैरी जान इन्हें खोजने के लिए गोकुल आया । कृष्ण अपने सखाओंके साथ उसके समीप आ रहे थे— परन्तु माताने कोई उपाय रच उन्हें आत्मीय जनोंके द्वारा नगरके बाहर व्रजको भेज दिया || ६८ || व्रजमें एक ताडवी नामकी पिशवी आयी जो जोर-जोर से अट्टहास कर रही थी, जिसके नेत्र और मुख दोनों ही अत्यन्त रूक्ष थे, जिसका शरीर अत्यन्त बढ़ा हुआ था और जिसकी शरीरयष्टि १. सौख्या म । २. सुराश - म । सुन्दर रासक्रीडाभिः । ३ जनन्या : म. 1 ४. नाटवीं म ।
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