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अष्टत्रिंशः सर्गः
पृथिवीच्छन्दः जिनेन्द्रपितरौ ततो धनपतिः सुरेन्द्राज्ञया स्वभक्तिमरतोऽपि च स्वयमुपेत्य' तीर्थोदकैः । शुभैः सममिषिच्य तौ सुरभिपारिजातोद्भवैः सुगन्धवरभूपणैर्भुवनदुर्लभैः प्रार्चयत् ॥१॥ पुरैव परिशोधिते विदितदिक्कुमारीगणैर्बभार विमलोदरे प्रथमगर्भमुद्यत्प्रभम् । स्वबन्धुजनसिन्धुवृद्धिकरमस्ततापोदयं शिवाय जगतां शिवा शशिनमम्बरश्रीरिव ॥२॥ चकार न वियोजितत्रिवलिभङ्गशोभामसौ न च श्वसनबाधिताधरसुपल्लवां' नालसाम् । स्तनस्तवकभारनम्रननुमध्यसुस्त्रीलतां नितान्तकृपयेव तां फलमरो न चावाधत ॥३॥ निगूढनिजगर्मसंमवतनोरिव व्यक्तये पयोधरभरो ययावतितरां पयःपूर्णताम् । तदहनगौरवादिव विशेषविस्तीर्णतां जगाम जघनस्थकी निविडमेखलाबन्धना ॥४॥ मनो भुवनरक्षणे सकलतत्त्वसंवीक्षणे वचोऽपि हितभाषणे निखिलसंशयोत्पेषणे । वपुर्वतविभूषणे विनयपोषण चोचितं बभूव जिनवैभवादतितरां शिवायास्तदा ॥५॥ महामृतरसाशनैः सुरवधूमिरापादितैरनन्तगुणकान्तिवीर्य करण: समास्वादितः । जिनेन्द्रजननीतनुस्तनुरपि प्रमाभिर्दिशो दशापि कनकप्रमा विदधतीव विधुबभौ ॥६॥
तदनन्तर इन्द्रकी आज्ञा और अपनी भक्तिके भारसे कुबेरने स्वयं आकर शुभ तीर्थजलसे भगवान्के माता-पिताका अच्छी तरह अभिषेक किया और मनोज्ञ कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न अन्यजनदुर्लभ सुगन्ध और उत्तमोत्तम आभूषणोंसे उनकी पूजा को ॥१॥ जिस प्रकार आकाशकी लक्ष्मी अपने निर्मल उदरमें चन्द्रमाको धारण करती है उसी प्रकार भगवान्की माता शिवादेवीने प्रसिद्ध दिक्कुमारी देवियोंके द्वारा पहलेसे ही शुद्ध किये हुए अपने निर्मल उदर में जगत् के कल्याणके लिए सर्वप्रथम उस गर्भको धारण किया जो उठती हई प्रभासे युक्त था, अपने बन्धुजनरूपी समुद्रकी वृद्धिको करनेवाला था, तथा सन्तापके उदयको दूर करनेवाला था ॥२॥ उस गर्भरूपी फलके भारने अत्यधिक दयासे प्रेरित होकर ही मानो स्तनरूपी गुच्छोंके भारसे नम्रीभूत एवं पतली कमरवाली शिवादेवीरूपी लताको रंचमात्र भी बाधा नहीं पहुंचायी थी। न तो उसकी त्रिवलिरूपी तरंगकी शोभाको नष्ट किया था, न श्वासोच्छ्वाससे उसके अधररूपी पल्लवको बाधित किया था और न उसे आलस्यसे युक्त ही होने दिया था ॥३॥ अपने अत्यन्त गूढ़ गर्भ में भगवान्के शरीरकी जो उत्पत्ति हुई थी उसे प्रकट करनेके लिए ही मानो शिवादेवीके स्तनोंका भार अत्यधिक दूधसे परिपूर्णताको प्राप्त हो गया था तथा मेखलाके सघन बन्धनसे युक्त उसकी नितम्बस्थली उस स्तनके भारको धारण करनेके गौरवसे ही मानो अत्यधिक विस्तृत हो गया थी |४|| उस समय भगवान् के प्रभावसे शिवादेवीका मन संसारको रक्षा करने तथा समस्त तत्वोंके अव. लोकन करने में अभ्यस्त रहता था, वचन सब प्रकारके संशयको नष्ट करनेवाले हितकारो भाषणमें अभ्यस्त रहता था और शरोर व्रतरूपी आभूषणके धारण करने तथा विनयके पोषण करने में अभ्यस्त रहता था ।।५॥ भगवान्की माता, देवांगनाओंके द्वारा सम्पादित एवं अनन्तगुणी कान्ति और बलको बढ़ानेवाला अमृतमय आहार करती थी इसलिए उनका शरीर कृश होनेपर भी अपनी प्रभासे दशों दिशाओंको सुवर्ण जैसी कान्तिका धारक करता हुआ बिजलीके समान सुशो
१. -मुदेत्य म. । २. पल्लवं म.। ३. संदीक्षणे ग.।
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