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अष्टत्रिंशः सर्गः
४८१ यथास्वमपि सप्तमिः प्रथमकल्पनाथादयोऽप्यनीकनिवहता युगपदव्युतेन्द्रोत्तराः । प्रतिस्वमपि सप्तभिः सकलकल्पजैः षोडश प्रमोदवशवर्तिनः समभिजग्मुरिन्द्राः सुरैः ॥२०॥ अनेकमुखेदत्तसत्कमलखण्डपत्रावलीसुरूपसुरसुन्दरीललितनाटकोद्भासिनम् । हिमाद्रिमिव जङ्गमं निजवधूमिरैरावतं करीन्द्रमधिरूढवानभिरराज सौधर्मपः ॥११॥ अनीकमथ यौवज रचितसप्तकक्षान्तरं गृहीतवलयाकृतिप्रकृतिपौरुषाधिष्ठितम् । परीत्य कुलिशायुधं कुलिशपूर्वशस्त्राटवीनिरुद्धगगनान्तरं भृशमशोभत त्रैदशम् ॥२२॥ जवेन लघु लङ्घयदुतसमारणं हेषितप्रयोजितवियोजितत्रिभुवनान्तरालं तथा । बृहदबहिरवर्तत प्रविततं हयानोकमप्यरं गगनवारिधेरधितरङ्गारङ्गायितम् ॥२३॥ सुमुग्धमुखकोशकैर्नयनपुण्डरीकैनिजैर्ललस्ककुदवालधिश्रुतिसुगात्रसास्नापुरैः । सुवर्णखुरशृङ्गकः प्रतिवृषं वृषानीकमप्युवाह परितः स्थितं विपुलकान्तिमिन्दुप्रभाम् ॥२४॥ विभिन्नमपि सप्तधा स्वयमभेद्यमप्यद्रिमिनभोवलयसागरे त्रिदशयानपात्रायितम् । प्रभाविजित विस्फरविरथं रथानीकमप्यमादतिमनोहरं वलयवत्परिक्षेपकम् ॥२५॥ विकर्णघनशीकरैः करिभिरूवलीलाकरैः प्रवृत्तगुरुगजितैर्गुरुतरै रिवाम्भोधरैः । महामरुदधिष्टितैः सुघटितं गजानीकमप्यनेकरचनान्तरं व्यतनुत श्रियं प्रावृषः ॥२६॥ स्वरैरपि च सप्तमिर्मधुरमुर्छनाकोमलैः सवीणवरवंशतालरवमिश्रितैराश्रितः।
प्रपूर्णभुवनोदरं बहिरतोऽप्यनीकं बभौ युवत्यमरबन्धुरं तिकरं तु गन्धर्वजम् ॥२७॥ जो यथायोग्य अपनी-अपनी सात प्रकारकी सेनाओंके सहित थे, ऐसे प्रथम स्वर्गसे लेकर सोलहवें स्वर्ग तकके सोलह इन्द्र, आनन्दके वशीभूत हो समस्त स्वर्गाके देवोंके साथ यहां आ पहुँचे ॥२०॥ सौधर्मेन्द्र अपनी स्त्रियोंके साथ उस ऐरावत नामक गजराजपर बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था, जो चलते-फिरते हिमालयके समान जान पड़ता तथा अनेक मुखोंके भीतर दाँतोंपर विद्यमान कमल-समूहकी कलिकाओंपर नृत्य करती हुई देवांगनाओंके सुन्दर नृत्यसे सुशोभित था ॥२१॥ इन्द्रको चारों ओरसे घेरे हुए देवोंकी वह सेना सुशोभित हो रही थी जिसने सात कक्षाओंका विभाग किया था, जो गोल. आकारके सहित थी, स्वाभाविक पुरुषार्थसे युक्त थी, तथा वच आदि शस्त्रोंके वनसे जिसने आकाशके अन्तरालको रोक रखा था ॥२२॥ तदनन्तर घोड़ोंकी बहुत बड़ो विराट सेना थी जो अपने वेगसे शीघ्रगामी वायुको शीघ्र ही जीत रही थी। जो अपनी हिनहिनाहटसे तोन लोकके अन्तरालको संयुक्त तथा वियुक्त कर रही थी, और आकाशरूपी समुद्रकी उठतो हुई तरंगोंके समूहके समान जान पड़ती थी ॥२३।। तदनन्तर बैलोंकी वह सेना चारों ओर खड़ी थी जो कि सुन्दर मुख, सुन्दर अण्डकोश, नयन कमल, मनोहर कांदौल, पूंछ, शब्द, सुन्दर शरीर, सास्ना, सुवर्णमय खुर और सींगोंसे युक्त थी तथा अत्यधिक कान्तिसे
त चन्द्रमाको प्रभाका धारण कर रहा था ॥२४॥ तदनन्तर रथोकी वह सेना भी सुशोभित हो रही थी जो स्वयं सात प्रकारसे विभिन्न होनेपर भी पर्वतोंसे अभेद्य थी, आकाशरूपी सागरमें जो देवोंके यानपात्रके समान जान पड़ती थी, प्रभासे जिसने: सूर्यके देदीप्यमान रथको जीत लिया था, जो अत्यन्त मनोहर थी और जिसका घेरा वलयके समान सुशोभित था ॥२५॥ तत्पश्चात् जो चारों ओर जलके छींटोंकी वर्षा कर रहे थे, जिनके शुण्डादण्ड ऊपरकी ओर उठे हुए थे, जो बहुत भारी गर्जना कर रहे थे, जो आकारमें बहुत भारी थे, एवं जो बड़े-बड़े देवोंसे अधिष्ठित थे, ऐसे मेघोंकी समानता धारण करनेवाले हाथियोंसे रचित, अनेक प्रकारकी रचनाओंसे युक्त हाथियोंकी सेना भी वर्षा ऋतुकी शोभा विस्तृत कर रही थी ॥२६॥ हाथियोंकी १. दम्तसत्कमल म., दन्तदन्तसरकमल ग. । २. योषजं म., ख. । देवजं घ. । ३. प्रघोषित ग. । ४. कोशिकर्नयन म. । कोशकर्नयन ग. । ५. पटैः ग.। ६. अपूर्णभुवनोपरम् म.।
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