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चत्वारिंशः सर्गः अथ श्रुत्वा जरासन्धो भ्रातुर्वधमसौ मृधे । शोकसिन्धौ निमग्नोऽरिक्रोधपोतेन धारितः ॥१॥ समस्तयदुनाशाय समस्तनयपौरुषः । सोऽभ्यमित्रममीगन्तुं मित्रवर्गमजिज्ञपत् ॥२॥ प्रमोस्तस्य समादेशासानादेशाधिपा नृपाः । चतुरङ्गबलोत्तमाः श्रिताः स्वामिहितैषिणः ॥३॥ दत्तप्रयाणमेनं स्वनन्तसैन्याब्धिवर्तिनम् । विविदुर्यदुशार्दूलाश्चतुराश्चारचक्षुषः ॥४॥ ततः श्रुतवयोवृद्धा वृष्णिभोजकुलोत्तमाः । कर्तुमारेभिरे मन्त्रमिति तत्वनिरूपिणः ॥५॥ त्रिखण्डाखण्डिताज्ञोऽन्यैः प्रचण्डचण्डशासनः । चक्रखड्गगदादण्डरस्नाद्यस्वबलोद्धतः ॥६॥ कृतज्ञः कृतदोषेषु प्रणतेषु कृतक्षमः । अस्मास्वनपकारः प्रागुपकारकतत्परः ॥७॥ जामातृभ्रातृघातोस्थपराभवरजोमलम् । प्रमाष्टुं कोपवानस्मान्मागधोऽभ्येत्य बिभ्यतः ॥८॥ दैवपौरुषसामर्थ्य मस्मदीयमतिस्मयः । प्रकटीभूतमप्येष पश्यापि न पश्यति ॥९॥ कृष्णस्य पुण्यसामर्थ्य पौरुषं च बलस्य च । बाल्यादारभ्य निःशेषमिदं परमवैभवम् ॥१०॥ नेमितीर्थकरस्यापि देवेन्द्रासनकम्पिनः । प्रभुत्वं च स्फुटीभूतं बालस्यापि जगस्त्रये ॥११॥
अथानन्तर-युद्ध में भाईका वध सुनकर शोकरूपी सागरमें डूबता हुआ जरासन्ध, शत्रुओंपर उत्पन्न हुए क्रोधरूपी जहाजके द्वारा बचाया गया था। भावार्थ-भाई अपराजितके मरनेसे जरासन्धको जो दुःख हुआ था उससे वह अवश्य ही मर जाता परन्तु शत्रुओंसे बदला लेनेके क्रोधने उसकी रक्षा कर दी ॥१॥ समस्त नय और पराक्रममें निपुण जरासन्धने समस्त यादवोंका नाश करनेके लिए मनमें पक्का विचार कर लिया और निर्भीक हो शत्रुके सम्मुख जानेके लिए मित्रोंके समूहको आज्ञा दे दो ॥२।। स्वामीकी आज्ञा पाकर उसके हितकी इच्छा करनेवाले नाना देशोंके राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओंसे युक्त हो आ पहुंचे ॥३॥ इधर अनन्त सेनारूपी
सन्धने जब यादवोंकी ओर प्रयाण किया तब गप्तचररूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले चतुर यादवोंने शीघ्र ही उसका पता चला लिया ॥४॥ तदनन्तर जो शास्त्र और अवस्थामें वृद्ध थे तथा पदार्थका यथार्थ स्वरूप निरूपण करनेवाले थे ऐसे वृष्णिवंश एवं भोजवंशके प्रधान पुरुष इस प्रकार मन्त्र करनेके लिए तत्पर हुए ॥५॥
वे कहने लगे कि तीन खण्डोंमें इसकी आज्ञा अन्य पुरुषोंके द्वारा कभी खण्डित नहीं हुई। यह अत्यन्त उग्र है, इसका शासन भी अत्यन्त उग्र है, चक्र, खड्ग, गदा तथा दण्डरल आदि अस्त्रोंके बलसे यह उद्धत है, किये हुए उपकारको माननेवाला है, जो मनुष्य अपराध कर नम्रीभूत हो जाते हैं उनपर यह क्षमा कर देता है, हम लोगोंका इसने पहले कभी अपकार नहीं किया, उपकार करने में ही निरन्तर तत्पर रहा है किन्तु अब माता और भाईके वधसे उत्पन्न पराभवरूपी रजके मलको दूर करनेके लिए क्रोधयुक्त हुआ है और भयभीत होते हुए हम लोगोंके सम्मुख आ रहा है ॥६-८॥ यह इतना अहंकारी है कि हम लोगोंकी देव और पुरुषार्थ सम्बन्धी सामर्थ्यको जो कि अत्यन्त प्रकट है देखता हुआ भी नहीं देख रहा है ।।९॥ कृष्णके पुण्यका सामर्थ्य और बलरामका पौरुष-यह सब परम वैभव बालक अवस्था ही से प्रकट हो रहा है। इन्द्रोंके आसनको कम्पित कर देनेवाले नेमिनाथ तीर्थंकर यद्यपि इस समय बालक हैं तथापि उनका प्रभुत्व तीनों जगत्में प्रकट हो चुका है। वह यह भी नहीं सोच रहा है कि जिस तीर्थकरका पालन १. रणे । २. अस्मास्वनपकारेषु प्रागुपकारतत्परः ( म. टि.)। ३. पूर्ण इत्यपि (म. टि.)।
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