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हरिवंशपुराणे
अनुवर जरासन्धं तत्रायातं निशम्य ते । प्रत्यैक्षन्त महोत्साहा यदवोऽपि युयुत्सवः ॥ २७॥ अल्पमन्तरमालोक्य देवताः सेनयोस्तयोः । भरतार्द्ध निवासिन्यः कालदैवनियोगतः ॥२८॥ विकृत्य दिम्यसामर्थ्यादन्तरे चितिकाश्च ताः । अग्निज्वालापेरतांस्तान् दर्शयचक्रिरेऽरेये ॥ २९ ॥ चतुरङ्गबलं तच दद्यमानमितस्ततः । पश्यति स्म जरासन्धो ज्वालालीकीढविग्रहम् ॥३०॥ ज्वालारुतुपथस्तत्र विश्रान्तनिजसाधनः । अपृच्छदतीमेकां स्थविरीभूय देवताम् ॥३१ ॥ दह्यते विपुलः कस्य स्कन्धावारोऽयमाकुलः । किमर्थं रोदिषि त्वं च वद वृद्धे ! यथास्थितम् ॥३२॥ इति पृष्टा समाचष्टे तस्मायस्त्राविलेक्षणा । शोकं निगृह्य कृच्छ्रेण रुद्धे कण्ठेऽपि मन्युना ॥३३॥ वदामि शृणु तेजस्विन् ! यथादृष्टं यतो जनः । निवेद्य महते दुःखान्महतोऽपि विमुच्यते ॥ ३४ ॥ अस्ति राजगृहे राजा जरासन्ध इति श्रुतिः । सत्यसन्धः स यः शास्ति सागरान्तां वसुंधराम् ॥ ३५॥ वाडवाचिश्छलेनास्य नूनमम्बुनिधावपि । प्रज्वलन्ति द्विषां शान्त्यै प्रतापदहनार्चिषः ॥३६॥ आत्मापराधबाहुल्यास्सशल्यहृदयास्ततः । यादवाः क्वापि संत्रस्ताः प्रयान्तः प्रियुजीविताः ॥ २७॥ ते काश्यप्यामपश्यन्तः सन्तः सशरणं क्वचित् । प्रविश्य दहनं याताः शरणं मरणं परम् ॥ ३८ ॥ कुल क्रमागता तेषां भुजिष्या भूभुजामहम् । स्वामिदुर्मृतिदुःखार्ता रोदिमि प्रियजीविता ॥ ३९ ॥
सुशोभित था, और अपनी चोटियोंसे आकाशका चुम्बन कर रहा था ऐसे उस विन्ध्याचलको शोभाने मनुष्योंका मन हर लिया ||२६|| 'मार्ग में पीछे-पीछे जरासन्ध आ रहा है' यह सुनकर अत्यधिक उत्साहसे भरे हुए यादव लोग भी युद्धकी इच्छा करते हुए उसकी प्रतीक्षा करने लगे ||२७|| उन दोनोंकी सेनाओंमें थोड़ा अन्तर देखकर समय और भाग्यके नियोगसे अर्धभरत क्षेत्र में निवास करनेवाली देवियोंने अपने दिव्य सामथ्यसे विक्रिया कर बहुत-सी चिताएँ रच दीं और शत्रुके लिए यह दिखा दिया कि यादव लोग अग्निकी ज्वालाओंसे व्याप्त हैं ||२८-२९ ॥ जरासन्धने, ज्वालाओंके समूहसे जिसका शरीर व्याप्त था ऐसो जलती हुई चतुरंग सेनाको जहाँतहाँ देखा ||३०|| ज्वालाओंसे जब जरासन्धका मार्ग रुक गया तब उसने अपनी सेना वहीं ठहरा दो और बुढ़ियाका रूप धरकर रोती हुई एक देवीसे पूछा कि 'हे वृद्धे ! यह किसका विशाल कटक व्याकुल हो जल रहा है ? और तू यहाँ क्यों रो रही है ? सब ठीक-ठीक कह' । उस समय वृद्धाके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे तथा उसका कण्ठ यद्यपि शोकसे रुँधा हुआ था तथापि जरासन्धके इस प्रकार पूछनेपर बड़ी कठिनाईसे शोकको रोककर वह कहने लगी ।।३१-३३ ||
हे प्रतापी राजन् ! मैंने जो कुछ देखा है वह कहती हूँ क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जो मनुष्य महापुरुषके लिए अपना दुःख निवेदन करता है वह बड़े-से-बड़े दुःखसे विमुक्त हो जाता है— छूट जाता है ||३४|| राजगृह नगर में जरासन्ध नामका एक वह सत्यप्रतिज्ञ राजा है जो समुद्रान्त पृथिवीका शासन करता है ||३५|| जान पड़ता है कि उसकी प्रतापरूपी अग्निकी ज्वालाएं शत्रुओंको शान्त करनेके लिए बड़वानलके छलसे समुद्र में भी देदीप्यमान रहती हैं || ३६ || अपने अपराधोंकी बहुलतासे यादव लोग जरासन्धकी ओरसे सदा सशत्यहृदय रहते थे इसलिए उससे भयभीत हो प्राण बचाने के लिए कहीं भाग निकले। परन्तु समस्त पृथिवी में जब उन्होंने कहीं किसीको शरण देनेवाला नहीं देखा तब वे अग्निमें प्रवेश कर मरणकी ही उत्तम शरण में जा पहुँचे अर्थात् अग्निमें जलकर निःशल्य हो गये || ३७-३८ || मैं उन राजाओंकी वशपरम्परासे चली आयी दासी हूँ । मुझे अपना जीवन प्रिय था इसलिए मैं उनके साथ नहीं जल सकी परन्तु अपने स्वामीके कुभरणके दुःखसे दुःखी होकर रो रही हूँ ||३९|| जिनके पीछे जरासन्ध
१. परीतास्तान् म. । २. चक्रिरे २ये म. ।
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