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चत्वारिंशः सर्गः
यस्यानुपालन व्यग्राः समग्रा लोकपालिनः । तत्तीर्थं कृस्कुले को वा मानुषोऽपकरिष्यति ॥१२॥ करेण कः स्पृशेदज्ञः कृशानु मकृशाचिंषम् । तीर्थकृद्बलकृष्णान् वा कोऽभ्येति विजिगीषया ॥१३॥ प्रतिशत्रुरयं राजा जरासन्धोऽस्य हिंसकौ । ध्रुवमत्र समुद्भूतौ रामनारायणाविमौ ॥ १४ ॥ तदत्र यावदापस्य सपक्षः कृष्णपावके । प्रतिशत्रुपतङ्गोऽयं भस्मीभवति न स्वयम् ॥ १५ ॥ तादाशु वयं शूरं शौरिमस्मद्वशं परम् । विगृह्यासनयोगेन योजयामो जयोन्मुखम् ॥१६॥ स्वीकृत्य वारुणीमाशां कानिचिद्दिवसानि वै । विगृह्यासनमेवं हि कार्यसिद्धिरसंशया ॥ १७ ॥ आसीनानेवमप्यस्मानभ्येति यदि मागधः । रणातिथ्यं प्रकृत्यैनं प्रेषयामो रणप्रियम् ॥ १८ ॥ इति संमय ते मन्त्रं प्रकाश्य कटके स्वके । आनन्दिनीनिनादेन प्रयाणकमजिज्ञपन् ॥ १९ ॥ भेर्यास्तस्या रवं श्रुत्वा चतुरङ्गबलं ततः । यदु मोज कुलक्ष्माभृरप्रधानमचलद्बलम् ॥२०॥ माधुर्यः शौर्यपूर्यश्च वीर्यपूर्यः प्रजास्तदा । समं स्वाम्यनुरागेण स्वयमेव प्रतस्थिरे ॥२१॥ प्रजाः प्रकृतिभिः सर्वाश्चातुर्वर्णाः सधार्मिकाः । प्रस्थानं मेनिरे स्थानादुद्यानक्रीडया समम् ॥२२॥ अष्टादशेति संख्याताः कुलकोट्यः प्रमाणतः । अप्रमाणधनाकीर्णा निर्यान्ति स्म यदुप्रियाः ॥ २३ ॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगवारादिलब्धयः । सुलब्धसुकुला भूपा जग्मुरल्यैः प्रयाणकैः ॥ २४ ॥ देशानुल्लङ्घ्य निःशेषान् प्रतीचीं प्रति गच्छताम् । बभूव विपुलस्तेषामुपान्ते विन्ध्यपर्वतः ॥ २५॥ गजाननरम्यस्य सिंहशार्दूलशालिनः । शृङ्गालीढाम्बरस्यास्य श्रीर्जहार मनो नृणाम् ॥ २६ ॥
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करने के लिए समस्त लोकपाल व्यग्र रहते हैं उस तीर्थंकरके कुलका कौन मनुष्य अपकार कर सकेगा? ऐसा कौन अज्ञानी है जो बड़ी-बड़ी ज्वालाओंको धारण करनेवाली अग्निका हाथसे स्पर्श करेगा और ऐसा कोन बलवान् है जो जीतनेकी इच्छासे तीर्थंकर, बलभद्र और कृष्णका सामना करेगा ? || १० - १३|| यह राजा जरासन्ध प्रतिनारायण है और इसके मारनेवाले ये बलभद्र तथा नारायण यहाँ निश्चित ही उत्पन्न हो चुके हैं || १४ || इसलिए जबतक यह प्रतिनारायणरूपी पतंग, अपने पक्षों (सहायकों, पक्षमें पंखों ) के साथ आकर कृष्णरूपी अग्नि में स्वयं भस्म नहीं हो जाता है तबतक हम लोग शीघ्र ही विग्रहके बाद अन्यत्र आसन ग्रहण कर शूर-वीर कृष्णको विजयके सम्मुख करें। इस समय हम लोगोंको पश्चिम दिशाका आश्रय कर कुछ दिनों तक चुप बैठ रहना उचित क्योंकि ऐसा करने से कार्यकी सिद्धि निःसन्देह होगी ।।१५-१७॥ हम लोग इस तरह शान्तिसे चुप रहेंगे फिर भी यदि जरासन्ध हमारा सामना करेगा तो हम लोग युद्ध द्वारा सत्कार कर उसे यमराजके पास भेज देंगे || १८ उन्होंने वह मन्त्रणा अपने कटकमें प्रकट की और भेरीके शब्दसे दे दी ||१९|| भेरीका शब्द सुनकर यादव और भोजवंशी राजाओंकी चतुरंग सेना चल पड़ी ||२०| मथुरा, शौयँपुर और वीर्यंपुरकी प्रजाने स्वामीके अनुरागसे साथ ही प्रस्थान कर दिया ||२१|| धर्मात्माजनोंसे युक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि चारों वर्णकी प्रजाने राजा, मन्त्री आदि प्रकृतिके साथ होनेवाले उस प्रस्थानको ऐसा माना जैसे अपने स्थानसे वनक्रीड़ाके लिए ही जा रहे हैं ||२२|| उस समय अपरिमित धनसे युक्त अठारह करोड़ यादव शौर्यंपुरसे बाहर निकले थे ||२३|| उत्तम तिथि, नक्षत्र, योग और वार आदिको प्राप्त हुए वे उच्चकुलीन राजा, छोटे-छोटे पड़ावों द्वारा गमन करते थे ||२४|| तदनन्तर अनेक देशों का उल्लंघन कर जब वे पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहे थे तो विशाल विन्ध्याचल पर्वत उनके समीपस्थ हुआ अर्थात् क्रमशः गमन करते हुए वे विन्ध्याचल के समीप जा पहुँचे || २५ || जो हाथियोंके वनोंसे सुन्दर था, सिंह और व्याघ्रोंसे १. पालने व्यग्राः म. । २. वसुदेवजं कृष्णम् । ३. रणः प्रियो यस्य तं यममित्यर्थः । ४. भेरीशब्देन । ५. ‘स्वाम्यमात्यं सुहृत्कोषराष्ट्रदुर्गबलानि च । राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च ' ॥ इत्यमरः ।
इस प्रकार परस्पर सलाह कर नगरमें प्रस्थान करनेकी आज्ञा
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