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एकोनचत्वारिंशः सर्गः
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सम्यक्त्वज्ञान चारित्ररत्नत्रयस्यामिसंपरकरं 'चैत्तशारीरसौख्यप्रदं शान्तिकं पौष्टिकं तुष्टिसंपत्ति संपादि साक्षादिहामुत्र चानेक कल्याणसंप्राप्तिहेतोः प्रपुण्यास्त्रत्रस्य स्वयं कारणं वारणं सर्वपापात्रवाणां सहस्रस्य विध्वंसकरणं दारुणस्यापि पूर्वत्र सर्वत्र चानेहसि स्नेहमोहादिभावेन संचितस्यैनसः । स्तोत्रमुख्यं जिनेन्द्रे विधेयादिदं मक्तिभारं परम् ।
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ जन्माभिषेके इन्द्रस्तुतिवर्णनो नाम एकोनचत्वारिंशः सर्गः ॥ ३९ ॥ |
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सम्पत्तिको सम्पन्न करता है तथा परलोक में अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति में कारणभूत उत्कृष्ट पुण्या
का स्वयं कारण है, समस्त पाप कर्मोंके हजारों प्रकारके आस्रवोंका निवारण करता है और पूर्वभव में सर्वदा स्नेह तथा मोह आदि भावोंसे संचित भयंकर से भयंकर पापोंका नाश करता है । यह मुख्य स्तोत्र, जिनेन्द्र भगवान् में सातिशय भक्ति उत्पन्न करे ।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जन्माभिषेक के समय इन्द्र द्वारा कृत स्तुतिका वर्णन करनेवाला उनतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||३९||
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१. चैवं म । २. स्नेहमोदिभावेन म । ३. जिनेन्द्र ग. ।
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