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एकचत्वारिंशः सर्गः
दिदृक्षया ततो याताः क्षत्रियाः क्षुब्धतोयधेः । ते दशार्हमहाभोजविष्णुनेमीश्वरादयः ॥१॥ ततः शीकरिणं मत्तमिव दिक्करिणं मुहुः । झषस्फुरणलीलेषदुन्मीलननिमीलनम् ॥२॥ महत्खस्पर्द्धयेवोर्ध्वमूर्मिदोर्मण्डलैश्चलैः । आस्फालयितुमाकाशमाशानुगतमूर्जितम् ॥३॥ घूर्णमानमुदीर्णोग्रमकरग्राहविग्रहम् । 'मकराकरमैक्षन्त मकरीकरिणीवृतम् ॥४॥ अलब्धपारमुयुक्तरप्यनुत्पन्नबुद्धिमिः । अतिगम्भीरतायोगादलचितनिजस्थितिम् ॥५॥ तुङ्गमङ्गतरङ्गोद्यदङ्गपूर्णमहार्णसम् । पुराणमार्गसंपातनदीमुखमनोहरम् ॥६॥ अनात्ममहाररनमुक्ताकरमनादिकम् । वैपुल्यस्वच्छतासंगादङ्गीकृतनमःश्रियम् ॥७॥
तदनन्तर समुद्रविजय आदि दशार्ह, महाभोज, वृष्णि, कृष्ण तथा नेमिजिनेन्द्र आदि क्षत्रिय लहराते हुए समुद्रको देखनेकी इच्छासे उसके समीप गये ॥१॥ उस समय उस समुद्र में जहाँ-तहाँ जलके छींटे बिखर रहे थे। उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो मदोन्मत्त दिग्गज ही हो और मछलियोंके बार-बार उछलने तथा नीचे आनेकी लीलासे ऐसा जान पड़ता था मानो नेत्रोंको कुछ-कुछ खोल रहा हो और बन्द कर रहा हो ॥२॥ वह समुद्र ऊंची उठती हुई अपनी चंचल तरंगरूपी भुजाओंके समूहसे ऐसा जान पड़ता था मानो विशाल आकाशसे ईर्ष्या कर समस्त दिशाओंसे युक्त आकाशका आस्फालन करनेके लिए ही उद्यत हुआ हो ॥३।। जो लहरोंसे चारों ओर घूम रहा था, जिसके भीतर बड़े-बड़े भयंकर मगर-मच्छ उछल-कूद कर रहे थे, एवं जो मकरी-रूपी हस्तिनियोंसे घिरा हुआ था ऐसे समुद्रको उन सबने देखा ॥४|| उस समय वह समुद्र, जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा निरूपित शास्त्र-रूपी सागरके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार
उद्योग करने पर भी जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागरका पार प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसी प्रकार बद्धिहीन ( नौकानिर्माण आदिकी बुद्धिसे रहित ) मनुष्य उद्यम करनेपर भी उस समुद्रका पार नहीं प्राप्त कर पा रहे थे। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागरको अपनी स्थिति, अत्यन्त गम्भीरताके योगसे अलंधित है अर्थात् उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है उसी प्रकार उस समुद्रकी अपनी स्थिति भी अत्यधिक गम्भीरता-गहराईके योगसे अलंधित थी अर्थात् उसे लांघकर कोई नहीं जा सकता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर, उत्कृष्ट भंगरूपी तरंगोंसे युक्त अंग-द्वादशांगरूपी महाजलसे युक्त है उसी प्रकार वह समुद्र भी ज्वारभाटा, तरंग तथा फेन आदि उठते हुए अंगोंसे पूर्ण महाजलसे युक्त था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर पुराणोंमें निरूपित नाना मार्गों के समूहरूपी नदियोंके अग्रभागसे मनोहर है उसी प्रकार वह समुद्र भी पुराण-जीर्ण-शीर्ण मार्गको बहाकर लानेवाले नदियोंके अग्रभागसे मनोहर था अर्थात् उसमें अनेक नदियाँ आकर मिल रही थीं। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर सर्वश्रेष्ठ आत्मद्रव्य, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी महारत्न तथा मुक्त जोवरूपी मुक्ताफलोंका आकर-खान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमूल्य-श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त बड़े-बड़े रत्न तथा मुक्ताफलोंका आकर-खान था: जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अनादिक है-अर्थ सामान्यको दृष्टिसे अनादि है
१. वजितम् क.।
२. मकराकार म. ।
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