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चत्वारिंशः सर्गः
यादवाः कौरवा मोजाः प्रजाः प्रकृतिभिः सह । अनुलग्नजरासन्धाः प्रलीना हुतभुग्मुखे ॥४०॥ अहं तु दुःखसंभारनिलयीकृतविग्रहा । सग्रहेव वियोगार्त्ता प्राणिमि प्राणवल्लभा ॥४१॥ श्रुत्वेति जरतीवाक्यं जरासन्धोऽतिविस्मितः । श्रयान्धकवृष्णीनामन्वयान्तममन्यत ॥४२॥ द्राग् निवृत्य निजं स्थानं सोऽध्यास्य सह बान्धवैः । विपन्नेभ्यो जलं दत्वा कृतकृत्य इव स्थितः ॥४३॥ यदवोऽपि ययुः स्वेच्छमुपकण्ठमुदन्वतः । एलावनलतासंगसद्गन्धानिल वीजितम् ॥४४॥ अपरार्णवमासृत्य दूरदेशनिवेशनाः । यथास्वं ते नृपास्तस्थुः प्रजाः प्रकृतयस्तथा ॥४५॥
शार्दूलविक्रीडितम्
पाणिग्राहितयानुमार्गमघृणो लग्नोऽति निर्बंन्धतः
संघान् परनाशमाशु कुपितः कर्त्तुं च मर्त्तु स्वयम् । ज्वालारुद्धपथो न्यवर्त्तत रिपुर्यद्धन्य सर्व क्रिया
स्तज्जैनाः कथयन्ति तावदनयोः पुण्योदयः श्रूयताम् ॥४६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती हरिवंशयादवप्रस्थानवर्णनो नाम चत्वारिंशः सर्गः ॥४०॥
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लगा हुआ था ऐसे यदुवंशी, कुरुवंशी तथा भोजवंशी राजाओंकी प्रजा अपने मन्त्री आदिके साथ अग्नि मुखमें प्रविष्ट हो चुकी है ||४०|| परन्तु मुझ अभागिनीको अपने प्राण प्यारे रहे इसलिए मेरा शरीर दुःखके भारका स्थान हो रहा है तथा उन सबके वियोगसे दुःखी हो मैं पिशाचसे ग्रस्त - की तरह सांसें भर रही हूँ - जी रही हूँ ||४१ ॥
वृद्धाके इस प्रकार वचन सुनकर जरासन्ध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर अन्धकवृष्णियों के वंशका नाश मानने लगा ॥४२॥ वह उसी समय अपने स्थानपर वापस लौट आया और वहाँ रहकर मृतक जनोंके लिए बन्धुजनोंके साथ जलांजलि देकर कृतकृत्यकी तरह निश्चिन्ततासे रहने लगा ||४३|| उधर यादव लोग भी अपनी इच्छानुसार इलायचीके वनकी लताओंके समागम से सुगन्धित वायुके द्वारा वीजित समुद्रके तटपर जा पहुँचे ॥४४॥ इस प्रकार पश्चिम समुद्र के पास आकर दूर देश में ठहरे हुए वे सब राजा, प्रजा तथा मन्त्री आदि लोग यथायोग्य स्थानों में स्थित हो गये || ४५ ||
गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, अत्यन्त निर्दय और कुपित जरासन्ध अत्यधिक हठसे मागंमें यादवों के पीछे लगा और शत्रुका नाश करने तथा स्वयं मरनेके लिए शीघ्र दौड़ा परन्तु ज्वालाओंसे मार्ग रुक जानेके कारण चूँकि लौट आया इसलिए समस्त उत्तम क्रियाओंको करने वाले जिनेन्द्र भक्त जन कहते हैं कि वह उन दोनोंका पुण्योदय ही श्रवण करने योग्य था । भावार्थअपने-अपने पुण्योदयसे ही दोनोंकी रक्षा हुई थी ||४६ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें हरिवंश और यादवोंके प्रस्थानका वर्णन करनेवाला चालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||४०||
१. क्रियस्त - ग.
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