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एकचत्वारिंशः सर्गः
शालिनीच्छन्दः 'जैनैर्वाणवैष्णवैले मद्देश्चन्द्रालोकप्राकटैः सद्गुणौधैः ।
'स्पृष्टात्यर्थ हृष्टलोकोर्मिरामावलेवाब्धेरिका द्वारकान्ता ॥५॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती द्वारवतीनिवेशवर्णनो
नाम एकचत्वारिंशः सर्गः ॥३५॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि जो नेमिजिनेन्द्र, भोजक वृष्णि, कृष्ण और बलभद्रके उत्तम गुणोंके समूहरूपी प्रकट चांदनीसे स्पृष्ट थी, जिसमें हर्षसे भरे लोग तरंगोंके समान उछल रहे थे तथा जो द्वारोंसे सुन्दर थी ऐसी द्वारिकापुरी समुद्रको वेलाके समान अत्यधिक पुशोभित हो रही थी ॥५७॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें द्वारिकापुरोका
वर्णन करनेवाला इकतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
१. नेमिजिनसंबन्धिभिः । २. वृष्णीनामिमे वास्तिः । ३. विष्णोरिमे वैष्णवास्तैः श्रीकृष्णसंबन्धिभिः । ४. बलभद्रस्येमे बालभद्रास्तैः । ५. स्पष्टात्यर्थ म.। ६. द्वारः कान्ता मनोहरा।
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