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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
५०७ भ्रूकक्षिशिरःकण्ठघोणाधरपुटामया' । अभिभूयोपमाः सर्वाः स्थितां जगति तो पराम् ॥३८॥ दृष्ट्वाऽसौ विस्मितो दध्यौ दृष्टानेकाङ्गनोत्तमः । अहो रूपस्य पर्यन्ते कन्येयं वर्तते भुवि ॥३९॥ संयोज्य हरिणा कन्यामनन्यसदृशीमिमाम् । भनज्मि सत्यभामाया रूपसौभाग्यदुर्मदम् ॥४०॥ इति ध्यायन्तमायातं नारदं वीक्ष्य रुक्मिणी । अभ्युत्तस्थौ रणभषा स्वभावविनयैकमः ॥४१॥ साञ्जलिः प्रणनामासौ प्रत्युपेत्य तमादरात् । द्वारिकापतिपत्याप्त्या सोऽभ्यनन्दयदानताम् ॥४२॥ प्रश्नितेन तया तेन द्वारावत्या विकीर्तने । कृतेऽनुरागिणी कृष्णे रुक्मिणी नितरामभूत् ॥४३॥ कृष्णं भीष्मसुताचित्तमित्तौ नारदचित्रकृत् । वर्णरूपवयोविद्धं विलिख्य बहिरुद्ययौ ॥४४॥ विलिख्य पट्टके स्पष्टं रुक्मिण्या रूपमद्भुतम् । हरयेऽदर्शयद्गत्वा चित्तसंमोहकारणम् ॥१५॥ दृष्टा चित्रगतां कन्यां श्यामां स्त्रीलक्षणाञ्चिताम् । पप्रच्छ हरिरिस्येवं द्विगुणादरसंगतः ॥४६॥ कस्येयं भगवन् ! कन्या विचित्रा पट्टके त्वया । दुष्करं मानुषी क्षिप्रवाँ विचित्रा सुरकन्यका ॥४७॥ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै यथावृत्तमवञ्चकः । श्रत्वा सौरिरपि प्राप्तश्चिन्तां कन्याकरग्रहे ॥४८॥ काले पितृवसा तस्मिन्नेकान्ते हितकाम्यया । रुक्मिणीमित्यमाषिष्ट सर्ववृत्तान्तवेदिनी ॥४९॥ आकर्णय वचो बाले कदाचिदतिमुक्तकः । दिव्यचक्षरिहायातस्त्वां दृष्टाऽवददित्यसौ ॥५०॥
रोमराजि, भुजा, नाभि, स्तन, उदर तथा शरीरकी कान्तिसे, भौंह, कान, नेत्र, शिर, कण्ठ, नाक और अधरोष्ठकी आभासे संसारको समस्त उपमाओंको अभिभूत-तिरस्कृत कर उत्कृष्ट-रूपसे स्थित थी ॥३७-३८|| अनेक उत्तमोत्तम स्त्रियों को देखनेवाले नारद उस कन्याको देखकर आश्चयम पड़ गये तथा इस प्रकार विचार करने लगे कि 'अहो! यह कन्या तो पृथिवीपर रूपकी चरम सीमामें विद्यमान है-सबसे अधिक रूपवतो है ॥३९|| जो अपनो सानी नहीं रखती ऐसी इस कन्याको कृष्णके साथ मिलाकर मैं सत्यभामाके रूप तथा सौभाग्य-सम्बन्धी दुष्ट अहंकारको अभी हाल खण्डित किये देता हूँ' ॥४०॥
इस प्रकार विचार करते हुए नारदको आये देख, शब्दायमान भूषणोंसे युक्त तथा स्वाभाविक विनयकी भूमि रुक्मिणी उठकर खड़ी हो गयी ॥४१॥ उसने हाथ जोड़कर बड़े आदरसे सम्मुख जाकर नारदको प्रणाम किया तथा नारदने भी 'द्वारिकाके स्वामी तुम्हारे पति हों' इस आशीर्वादसे उस नम्रीभूत कन्याको प्रसन्न किया ।।४२।। उसके पूछनेपर जब नारदने द्वारिकाका वर्णन किया तब वह कृष्णमें अत्यन्त अनुरक्त हो गयी ॥४३।। अन्तमें नारदरूपी चित्रकार, रुक्मिणीके हृदयको दीवालपर वर्ण, रूप तथा अवस्थासे युक्त कृष्णका चित्र खींचकर बाहर चले गये ॥४४॥
बाहर आकर नारदने रुक्मिणीका आश्चर्यकारी रूप स्पष्ट रूपसे चित्रपर लिखा और चित्तमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाला वह रूप उन्होंने जाकर श्रीकृष्णके लिए दिखाया ॥४५|| नवयौवनवती तथा स्त्रियोंके लक्षणोंसे युक्त उस चित्रगत कन्याको देखकर कृष्णने दुगुने आदरसे युक्त हो नारदसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह किसकी विचित्र कन्या आपने चित्रपटपर अंकित की है ? यह तो मानुषीका तिरस्कार करनेवाली कोई विचित्र देव-कन्या जान पड़ती है ।।४६-४७|| कृष्णके इस प्रकार पूछनेपर छल-रहित नारदने सब समाचार ज्योंका-त्यों सुना दिया तथा उसे सुनकर कृष्ण उसके साथ विवाह करनेकी चिन्ता करने लगे ॥४८॥
उधर सब समाचारको जाननेवाली फुआने हितको इच्छासे एकान्तमें ले जाकर योग्य समयमें रुक्मिणीसे इस प्रकार कहा कि हे बाले ! तू मेरे वचन सुन । किसी समय अवधि-ज्ञानके धारक अतिमुक्तक मुनि यहाँ आये थे। उन्होंने तुझे देखकर कहा था कि 'यह कन्या स्त्रियोंके १. पुटोभया म.। २. द्वारिकापतिरेव पतिस्तस्याप्तिः प्राप्तिस्तया । ३. क्षिप्ता म.।
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