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हरिवंशपुराणे ततस्तिथी प्रशस्तायां कृतमङ्गलसंनिधिः । कृष्णः स्थानेप्सया चक्रे सबलोऽष्टमभक्तकम् ॥१५॥ दभशय्याश्रिते तस्मिन् कृतपञ्चगुरुस्तवे । नियमस्थितया धीरे समुद्रस्य तटे स्थिते ॥१६॥ गोतमाख्यः सुरो वार्द्धि सौधर्मेन्द्रनिदेशतः । न्यवर्तयदरं शक्तः कृतकालान्तरस्थितिम् ॥१७॥ वासुदेवस्य पुण्येन मक्त्या तीर्थकरस्य च । सद्यो द्वारवती चक्रे कुबेरः परमा पुरीम् ॥१८॥ नगरी द्वादशायामा नवयोजनविस्तृतिः । वज्रप्राकारवलया समुद्रपरिखावृता ॥१९॥ रत्नकाञ्चननिर्माणैः प्रासादैर्बहुमूमिकः । रुन्धाना गगनं रेजे साऽलकेव दिवश्च्युता ॥२०॥ वापीपुष्करिणीदीर्घदीर्घिकासरसोह्रदैः । पद्मोत्पलादिसंछन्नरक्षया स्वादुवारिभिः ॥२१॥ भास्वत्कल्पलतारूढकल्पवृक्षोपशोमितैः । नागवल्लीलवङ्गादिपूगादीनां च सदनैः ॥२२॥ प्रासादाः संगतास्तस्या हेमप्राकारगोपुराः । सर्वत्र सुखदा रेजुर्विचित्रमणिकुट्टिमाः ॥२३॥ रथ्याभिरमिरामान्तःप्रपाभिश्च सदादिभिः । राज्ञां सर्वप्रजानां च वासयोग्या व्यराजत ॥२४॥ सर्वरत्नमयैस्तुङ्गजिनेन्द्रभवनैरसौ । प्राकारतोरणोपेतै रेजे सोपवनैः पुरी ॥२५॥ आग्नेयादिषु मध्येऽस्या दिक्ष प्रासादपतयः । समद्रविजयादीनां दशानां क्रमतो बभुः ॥२६॥ तन्मध्ये सर्वतोमद्रः कल्पवृक्षलतावृतः । प्रासादः केशवस्याभात्तदाष्टादशभूमिकः ॥२७॥ अन्तःपुरसुतादीनां योग्याः प्रासादमालिकाः । शौरिसौधमुपाश्रित्य परितोऽतिबभासिरे ॥२८॥
तदनन्तर किसी प्रशस्त तिथिमें मंगलाचारकी विधिको जाननेवाले कृष्णने अपने बड़े भाई बलदेवके साथ स्थान प्राप्त करनेकी अभिलाषासे अष्टमभक्त अर्थात् तीन दिनका उपवास किया ॥१५॥ तत्पश्चात् पंचपरमेष्ठियोंका स्तवन करनेवाले धीर-वीर कृष्ण, जब समुद्रके तटपर नियमों में स्थित होनेके कारण डाभको शय्यापर उपस्थित थे तब सौधर्मेन्द्र की आज्ञासे गोतम नामक शक्तिशाली देवने आकर समुद्रको शीघ्र ही दूर हटा दिया। वह समुद्र वहां कालान्तरमें आकर स्थित हो गया था ॥१६-१७॥ तदनन्तर श्रीकृष्णके पुण्य और श्री नेमिनाथ तीर्थंकरकी सातिशय भक्तिसे कुबेरने वहां शीघ्र ही द्वारिका नामको उत्तम पुरीकी रचना कर दी ॥१८॥ वह नगरी बारह योजन लम्बी, नी योजन चौड़ी, वज्रमय कोटके घेरासे युक्त तथा समुद्ररूपी परिखासे घिरी हुई थी ॥१९॥ रत्न और स्वर्णसे निर्मित अनेक खण्डोंके बड़े-बड़े महलोंसे आकाशको रोकती हुई वह द्वारिकापुरी आकाशसे च्युत अलकापुरीके समान सुशोभित हो रही थी ।।२०।। कमल तथा नीलोत्पलों आदिसे आच्छादित, स्वादिष्ट जलसे युक्त वापी, पुष्करिणी, बड़ी-बड़ी वापिकाएँ, सरोवर और ह्रदोंसे युक्त थी ॥२१॥ देदीप्यमान कल्पलताओंसे आलिंगित कल्पवृक्षोंके समान सुशोभित पान-लौंग तथा सुपारी आदिके उत्तमोत्तम वनोंसे सहित थी ॥२२॥ वहाँ सुवर्णमय प्राकार और गोपुरोंसे युक्त बड़े-बड़े महल विद्यमान थे तथा सभी स्थानोंपर सुख देनेवाले रंग-बिरंगे मणिमय फर्श शोभायमान थे ॥२३|| जिनके बीच-बीच में प्याऊ तथा सदावर्त आदिका प्रबन्ध था ऐसी लम्बी-चौड़ी सड़कोंसे वह नगरी बहुत सुन्दर जान पड़ती थी तथा वह राजाओं और समस्त प्रजाके निवासके योग्य सुशोभित थी ॥२४॥ सब प्रकारके रत्नोंसे निर्मित प्राकार और तोरणोंसे युक्त एवं बाग-बगीचोंसे सहित ऊंचे-ऊँचे जिनमन्दिरोंसे वह नगरी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥२५॥ इस नगरीके बीचोंबीच आग्नेय आदि दिशाओंमें समुद्रविजय आदि दशों भाइयोंके क्रमसे महल सुशोभित हो रहे थे ।।२६॥ उन सब महलोंके बीचमें कल्पवृक्ष और लताओंसे आवृत, अठारह खण्डोंसे युक्त श्रीकृष्णका सर्वतोभद्र नामका महल सुशोभित हो रहा था ।।२७|| अन्तःपुर तथा पुत्र आदिके योग्य महलोंकी पंक्तियां श्रीकृष्णके भवनका
१. -रभिरामाभिः क.।
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