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एकोनचत्वारिंशः सर्गः
४९१ विचित्रप्रसूनप्रतानप्रसंगेन सौगन्ध्यमत्यद्भुतं बिभ्रता संभ्रमेणातिदूराच्च खेदापनोदार्थमभ्युस्थितेनेव मित्रेण गात्रानुकूलेन मन्दानिलेन प्रभुस्तीर्थ कृत्कोमलाङ्गः समालिङ्ग्यमानो मनोहारिबाल्यानुरूपाम्बरोद्भासिभूषाविशेषोद्धमाल्योज्ज्वलो बालकल्पद्रुमोदामशोमातिशायी घनश्याममूर्तिः सितोद्गन्धिसच्चन्दनेनोपदिग्धः स्फरस्सान्द्रचन्द्रातपाश्लिष्टरुन्द्रेन्द्रनीलाद्रिलक्ष्मीधरो देवसेनावृतः शीघ्रमुलध्य काष्ठामुदीचीमधिष्ठानमात्मीयमुच्चैवजनातवादित्रधीरध्वनिण्याप्तदिकचक्रवालाम्बरं दिव्यगन्धाम्बुवर्षाभिषिक्तापतरपुष्पवर्षोपरुद्धोरुरथ्यापथं श्रीनिधानं विधानेन माङ्गल्यसंसंगिना चारुसौर्य पुरं प्रापदैश्वर्यमाश्चर्य भूतं भुवि प्राकटं विश्वलोकस्य कुर्वन्नसौ नेमिनाथः। जिनशिशुमशिशुश्रियं शौरिसौर्यप्रजाशुंमदम्भोजिनीबालमास्वन्तमुत्तुङ्गमातङ्गराजोत्तमाङ्गस्थमादाय तं मातुरुत्संगमानीय शक्रः स्वयंविक्रियाशक्तियुक्तः सहस्रं भुजा मासुरांसस्थलश्रीपुर्षा स'प्रकृत्य प्रसार्योरुसौन्दर्यसंदर्भगर्भामरस्त्रीसंहस्राणि चित्रं प्रनृत्यन्ति बिभ्रझुजेष्वग्रतो यादवानां मुदा पश्यतां विश्वकाश्यप्यधीशत्वलाभादपि प्राज्यलाभं हृदि ध्यायतां स्फारिताक्षं क्षणारब्धसत्ताण्डवाखण्डशोभाप्रयोगान्वितं वायेजातिप्रतानप्रवृद्धाभिनेयं सम्रक्षोमलीलं सदिकचक्रभेदं सभूमिप्रपात महानन्दसनाटकं राज्यदक्षो ननाट स्फुटीभूतनानारसोदारभावं ततोऽहंदगुरुं देवराजः प्रणम्य प्रपूज्यान्य
दूरसे सम्मुख आये हुए मित्रके समान, शरीरके अनुकूल मन्द-मन्द समीरसे जिनका आलिंगन हो रहा था, जो प्रभु थे, तीर्थंकर थे, कोमल शरीरके धारक थे, जो मनको हरण करनेवाले तथा बाल्य अवस्थाके अनुरूप वस्त्रोंसे सुशोभित विशिष्ट आभूषणोंसे युक्त थे, देदीप्यमान मालाओंसे उज्ज्वल थे, बाल कल्पवृक्षको उत्कृष्ट शोभाको तिरस्कृत करनेवाले थे, मेघके समान श्याममूर्तिके धारक थे, सफेद एवं उत्कृष्ट गन्धसे युक्त उत्तम चन्दनसे लिप्त थे और इसके कारण जो उदित होती हुई सघन चांदनीसे आलिंगित प्रगाढ़ इन्द्रनीलमणिके पर्वतको शोभाको धारण कर रहे थे, और देवोंकी सेनासे आवृत थे ऐसे नेमिजिनेन्द्र शीघ्र ही उत्तर दिशाको उल्लंघ कर अपने उस सौर्यपुर नगरमें जा पहुंचे जहांको दिशाओंका अन्तराल और आकाश ऊंचीऊंची ध्वजाओंके समूह तथा वादित्रोंको गम्भीर ध्वनिसे व्याप्त था, जहांके बड़े-बड़े मार्ग, दिव्य और सुगन्धित जलको वृष्टिसे सींचे जाकर फूलोंकी पड़ती हुई वर्षासे रुके हुए थे, जो लक्ष्मीका भण्डार था तथा मंगलाचारमय विधि-विधानसे सुन्दर था, उस समय भगवान् नेमिनाथ पृथिवीपर समस्त लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाले आश्चर्यको प्रकट कर रहे थे।
बालक होनेपर भी जिनकी शोभा बालकों जैसी नहीं थी अर्थात् जो प्रकृतिसे वयस्कके समान सुन्दर थे। जो कृष्ण तथा सौर्यपुरकी प्रजारूपी शोभायमान कमलिनीको विकसित करनेके लिए बालसूर्य थे और जो अतिशय ऊचे ऐरावत-गजराजके मस्तकपर विराजमान थे ऐसे जिन-बालकको लेकर इन्द्रने उन्हें माताको गोदमें दिया। तदनन्तर विक्रिया शक्तिसे युक्त इन्द्रने स्वयं देदीप्यमान कन्धोंकी शोभाको पुष्ट करनेवाली हजार भुजाएं बनाकर उन्हें
नपर अत्यधिक सौन्दर्यसे युक्त नाना प्रकारका नत्य करनेवाली हजारों देवियोंको धारण किया। तत्पश्चात् इस लीलाको जब सामने बैठे हुए यादव लोग बड़े हर्षसे देख रहे थे तथा अपने हृदयमें जब इसे समस्त पृथ्वीके स्वामित्वके लाभसे भी अधिक समझ रहे थे तब राज्यमें दक्ष इन्द्रने महानन्द नामका वह उत्तम नाटक किया जिसने सबके नेत्रोंको विस्तृत कर दिया था, अर्थात् जिसे सब टकटकी लगाकर देख रहे थे। उत्सवपूर्वक प्रारम्भ किये हुए उत्तम ताण्डव नृत्यको अखण्ड शोभाके प्रयोगसे सहित था, नाना प्रकारके वादित्रोंको जातियोंके
१. प्रकृत्यपसार्यो म. । ३. प्रयातं म.।
२. बाह्यजातिप्रतानप्रवृत्ताभिनेयं म., वाद्यजतिप्रभानुप्रवृद्धाभिनेयं ग. ।
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