________________
४९२
हरिवंशपुराणे मत्यैरनध्यरलभ्यैर्विभूषादिभिर्मूषयित्वा जिनस्यामृताहारमुथत्कराङ्गुष्ठके दक्षिणे न्यस्य रक्षानिमित्तं वयस्यान् कुमारान् सुराणां सुरेन्द्रः कुमारस्य सम्यग्निरूप्याप्रमत्तं कुबेरं वयोभेदकाल योगं विभोः क्षेमयोग्यं विधेयं समस्तं त्वयेति स्थिरं ज्ञापयित्वा समापृच्छय जैनौ गुरू तावनुज्ञा ततः प्राप्यसंप्राप्तलामः कृतार्थ निर्ज मन्यमानो यथायातमन्यैरशेषैः सुरेन्द्रश्चतुर्मेददेवानुगैर्यातवान् सिद्धयात्रस्ततो दिक्कुमार्योऽपि संवृत्तकार्याः समासाद्य तामार्यपुत्रीं सपुत्रीं शिवां संप्रणम्य प्रहृष्टाः प्रजग्मुनिजस्थानदेशान् दिशस्ता दश द्योतयन्स्यः शरीरप्रमाभिर्जगन्नेमिचन्द्रोऽपि शुभ्रर्गुणग्रामसान्द्रांशुजालैः समाहादयन् बालभावेऽप्यबालक्रियो लालितो बन्धुवर्गामरैर्वर्द्धमानो रराज श्रिया।
स्तवनमिदमरिष्टनेमीश्वरस्येष्टजन्भाभिषेकाभिसंबन्धमाकान्तलोकत्रयातिप्रभावस्य पापापनोदस्य पुण्यैकमार्गस्य संसारसारस्य मोक्षोपकण्ठस्य भव्यप्रजानां प्रमोदस्य कर्तुः प्रमादस्य हतुर्धर्मस्योपनेतुर्मुदा यमाणस्य स्मर्यमाणस्य च संकीर्त्यमानस्य संकीर्तनं पठ्यमानं समाकर्ण्यमानं सदा चिन्त्यमानं
समूहसे जिसमें अभिनेय अंश वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे, जो भौंहोंके क्षोभकी लीलासे सहित था, दिङमण्डलके भेदसे सहित था, पथ्वीके प्रतापसे सहित था, और नाना रसोंके कारण जिसमें उदारभाव प्रकट हो रहा था।
तदनन्तर इन्द्रने भगवान्के माता-पिताको प्रणाम किया, उनकी पूजा की, अन्य मनुष्योंके लिए दुष्प्राप्य अमूल्य आभूषण आदिसे उन्हें विभूषित किया, रक्षाके निमित्त जिनेन्द्रके दाहिने हाथ अंगूठेमें अमृतमय मुख्य आहार निक्षिप्त किया। क्रीड़ाके लिए भगवान्को समान अवस्थाको धारण करनेवाले देवकुमारोंको उनके पास नियुक्त किया, कुबेरको यह आज्ञा दी कि तुम भगवान्की अवस्था, काल और ऋतुके अनुकूल उनके कल्याणके योग्य समस्त व्यवस्था करना । इस प्रकार इन्द्र यह आज्ञा देकर भगवान्के माता-पितासे पूछकर तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ चार निकायके देवोंसे अनुगत समस्त इन्द्रोंके साथ जैसा आया था मा चला गया । इन्द्रकी यात्रा सफल हुई।
तदनन्तर अपना-अपना कार्य पूरा कर दिक्कुमारी देवियोंने आर्यपुत्री, जिनबालक सहित माता-शिवादेवीके पास आकर उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद वे प्रकृष्ट हर्षसे युक्त अपने शरीरकी प्रभाओंसे दशों दिशाओंको देदीप्यमान करती हुई अपने-अपने स्थानोंपर चली गयीं। इधर गुण-समूहरूपी किरणोंके समूहसे समस्त जगत्को आनन्दित करनेवाले, बालक होनेपर भी वृद्धा-जैसी क्रियासे युक्त, बन्धुवर्ग तथा देवोंके द्वारा लालित नेमिजिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए लक्ष्मीसे सुशोभित होने लगे।
गौतम स्वामी कहते हैं कि यह स्तवन उन नेमिजिनेन्द्रके जन्माभिषेकसे सम्बन्ध रखनेवाला है जिनके सातिशय प्रभावने तीनों लोकोंको व्याप्त कर रखा है, जो पापको दूर करनेवाले हैं, एक पुण्यका हो मार्ग बतानेवाले हैं, संसारमें सारभूत हैं, मोक्षके निकट हैं, भव्य जीवोको हर्ष उत्पन्न करनेवाले हैं, प्रमादको हरनेवाले हैं, धर्मका उपहार देनेवाले हैं, सब लोग बड़े हर्षसे जिनका नाम श्रवण करते हैं, जिनका स्मरण करते हैं और जिनका अच्छी तरह कोर्तन करते हैं। पढ़ा गया, सुना गया और सदा चिन्तवन किया गया यह स्तोत्र इस लोकमें साक्षात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी सम्पत्तिको करता है, मानसिक और शारीरिक सुख प्रदान करता है, शान्ति करता है, पुष्टि करता है, तुष्टि और
१. मुख्यं म.। २. क्रियोल्लालितो ग. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org