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हरिवंशपुराणे
वृत्तानुगन्धिगद्यम्
अथ मथितमहामृताम्भोधिसंशुद्धपीयूषपिण्डातिपा नातिदोष विराजीर्यमाणेष्विवोद्गीर्यमाणेषु तत्खण्डखण्डेषु, शंखेषु खे खेदमुक्तः सुरैस्तोषपोषादनीषन्मनीषैर्भृशं पूर्यमाणेषु तद्यथा वाद्यमानोरु गम्भीरभेरीमृदङ्गानकादिप्रभूताततातोद्यशब्देषु संवृत्तजैनेन्द्र जन्माभिषेकोत्सवोद्घोषणायेव निश्शेषलोकान्तदिक्चक्रवालान्तराक्रान्तिमभ्युत्थितेषु प्रनृत्यत्सु विद्याधरवातदेवाङ्गनातुङ्गसंगीतनादाभिरामातिशृङ्गारहास्याद्भुतोचद्रसोदारवं गङ्गसत्वस्फुटाहायहार्यात्मदिव्या भिनेयप्रवृत्ताप्सरोवृन्दबन्धेषु सौधर्मकल्पाधिपः संभ्रमाद्विभ्रमभ्राजमानोद्यदैरावतस्कन्धमारोप्य संवृत्यधीरं जिनेन्द्र सितच्छत्रशोमं चलच्चामरालीभिरावीज्यमानं प्रगीताप्सरो लोकसंगोयमानातिशुद्धात्मकीर्तिं चचाल चलेन्द्रादैनीकैरशेषैरशेषं नभोभागमापूर्य शौर्यशैलैरलं यादवेन्द्रमृगेन्द्रैरिवाध्यासितं प्रथितविबुधनिकायैः पथि प्रस्थितैः सप्रमोदैः प्रणामप्रणुतिप्रगीतिप्रयोगप्रवृत्तैर्यथायोगमभिनन्द्यमानो महानन्दमापादयन् पादपद्मोपसेवासनाथस्य नाथखिलोकामराधीशलोकस्य लोकातिवर्तिप्रवृत्तं परम्पारमैश्वर्यं मत्यद्भुतं संदधानः, शिवानन्दनो, नन्द वर्धस्व जीवेति वेत्यादि पुण्याभिधानैस्तदा स्तूयमानः कुलाद्विप्रसूतिप्रभूताच्छतोयापगावीचिसंतान संसर्गशीतात्मना भोगभूमूरुहाण
अथानन्तर खेद रहित एवं विशाल बुद्धिके धारक देव सन्तोषको अधिकतासे आकाश में जिन शंखोंको अधिक मात्रामें फूँक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अमृतके महासागरके मथनेसे जो अत्यन्त शुद्ध अमृतका पिण्ड निकला था उसे अधिक मात्रामें पी जानेके दोषसे देव लोग चिरकाल तक पचा नहीं सके इसलिए उन्होंने उगल दिया हो उसी पीयूष - पिण्डके टुकड़े हों । शंखोंके शब्दोंके साथ-साथ बजाये जानेवाले अत्यधिक गम्भीर ध्वनि से युक्त भेरी, मृदंग तथा पटह आदिको एवं अधिक मात्रासे बजनेवाली बाँसुरी और वीणाके शब्द, 'श्री जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेकका उत्सव हो चुका है' इसकी घोषणा करनेके लिए ही मानो जब समस्त लोकके अन्त तक एवं समस्त दिशाओंके अन्तरालमें व्याप्त होनेके लिए उठ रहे थे । और जब विद्याधरोंके समूह एवं देवांगनाओंके उन्नत संगीतमय शब्दोंसे सुन्दर श्रेष्ठ शृंगार, हास्य और अद्भुत रससे परिपूर्ण वाचिक, आंगिक, सात्त्विक और आहार्य इन चार प्रकारके अपने सुन्दर दिव्य अभिनेयोंके प्रकट करनेमें प्रवृत्त अप्सराओंके समूह सुन्दर नृत्य कर रहे थे। तब सोधमं स्वगंका इन्द्र, सम्भ्रम पूर्वक विभ्रमोंसे शोभायमान उठते हुए ऐरावत हाथी के कन्धेपर धीर-वीर जिनेन्द्रको विराजमान कर सुमेरु पर्वत से उस शौर्यपुरकी ओर चला जो शूरवीरताके पर्वत एवं सिहोंके समान बलवान् यादववंशी राजाओंसे अधिष्ठित था । उस समय जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर सफेद छत्र सुशोभित हो रहा था, चंचल चमरोंकी पंक्तियाँ उनपर ढोरी जा रही थीं, और प्रकृष्ट गीतोंसे युक्त अप्सराओंके समूह उनकी अत्यन्त विशुद्ध कीर्ति गा रहे थे । सौधर्मेन्द्र ने उस समय समस्त आकाशको सब प्रकारकी सेनाओंसे पूर्णं कर रखा था। मार्गमें चलते हुए, हर्षंसे परिपूर्ण, प्रणाम, स्तुति तथा संगीतके प्रयोग में लीन प्रसिद्ध देवोंके समूह भगवान्का यथायोग्य अभिनन्दन कर रहे थे । त्रिलोक सम्बन्धी इन्द्रोंका समूह भगवान के चरणकमलोंको सेवामें तत्पर था और भगवान् उसे महान् आनन्द प्राप्त करा रहे थे । इस प्रकार जो लोकोत्तर एवं अत्यन्त आश्चर्यकारी परम ऐश्वर्यको धारण कर रहे थे, शिवादेवी के पुत्र थे, 'समृद्धिको प्राप्त होओ' 'बढ़ते रहो' 'जीवित रहो' इत्यादि पुण्य शब्दोंसे उस समय जिनकी स्तुति हो रही थी, कुलाचलोंसे उत्पन्न अत्यधिक स्वच्छ जलसे युक्त महानदियोंकी तरंगों के संसर्गसे शीतल, भोगभूमि सम्बन्धी कल्पवृक्षोंके रंग-बिरंगे पुष्प-समूहके संयोगसे आश्चर्यकारी सुगन्धिको धारण करनेवाले तथा खेद दूर करने के लिए सम्भ्रमपूर्वक बहुत १. चक्रवालोत्तराक्रान्ति म. । २. वाराङ्ग म. । ३. दनेकै म । ४. - मापूर्वशैले-म. ।
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