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अष्टत्रिशः. सर्गः
श्रिया च धृतिराशया च वरवारुणी पुण्डरीकिणी. स्फुरदलम्बुसा च सह मिश्रकेशी हिया । सचामरकराइमा बभुरुदारफेनावलीतरङ्ग कुलसंकुला इव कुलापगाः संगताः ॥ ३५ ॥ कनकनकचित्रया सहितया पुनश्चित्रया त्रिलोकसुर विश्रुतत्रिशिरसा च सूत्रामणिः । कुमार्य इव विद्युतो विलसितैर्जिनस्थान्तिके तमोनुद इवाबभुर्जलधरस्य विद्युल्लताः ॥ ३६ ॥ सहैव रुचकप्रभा रुचकया तदाद्याभया परा च रुचकोज्ज्वला सकलविद्युदग्रेसराः । दिशां च विजयादयो युवतयश्चतस्रो वरा जिनस्य विदधुः परं सविधि जातकर्मश्रिताः ॥ ३७॥ चतुर्विधसुरासुरा लघु समेत्य तावत्परं कुबेरजनिताद्भुतप्रथमशोममुच्चैर्ध्वजम् । परीत्य जिनभक्तितस्त्रिदशनाथलोकश्रियं विजेतुमिव चोद्यतं ददृशुरादृताः सेन्द्रकाः ॥ ३८ ॥ प्रविश्य नगरं ततः शतमखः स्वयं सत्सखः शिवास्पदसमीपगः स्थितिविदादिदेशादृताम् । शचीं शुचिमचापकां समुपनेतुमीशं शिशुं प्रसूतिगृहमाविशन्निति तदा बभौ सादरा ॥ ३९ ॥ विकृत्य सुरमायया शिशुमिहापरं निद्रया प्रयोज्य जिनमातरं प्रणतिपूर्वकं यत्नतः । प्रगृह्य मृदुपाणिना शिशुमदादसौ स्वामिने प्रणम्य शिरसा ददावमरराट् कराभ्यां जिनम् ॥ ४०॥ "जितेन्दु मुखचन्द्रकं विजितपुण्डरीकेक्षणं विशेषविजितासितोत्पलवनश्रियं तं श्रिया । निरीक्ष्य जितेपद्मपाणिचरणं सहस्रेक्षणः सहस्रगणनेक्षणैरपि ययौ न तृप्तिं तदा ॥ ४१ ॥
जान पड़ती थीं ||३४|| श्रो, धृति, आशा, वारुणी, पुण्डरीकिणी, अलम्बुसा, मिश्रकेशी और ही आदि देवियाँ हाथोंपर चामर लिये खड़ी थीं तथा अधिक फेनावली और तरंगों से युक्त आयी हुई कुलनदियों - गंगा आदि नदियोंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥ ३५ ॥ देदीप्यमान कनकचित्रा, चित्रा, तीन लोकके देवोंमें प्रसिद्ध त्रिशिरा और सूत्रामणि, ये विद्युत्कुमारी देवियाँ उस समय जिनेन्द भगवान् के समीप अपनी चेष्टाओंसे ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो मेघके समीप अन्धकारको नष्ट करनेवाली बिजलीरूपी लताएँ ही हों || ३६ | उस समय समस्त विद्युत्कुमारियोंमें प्रधान रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और रुचकोज्ज्वला तथा दिक्कुमारियों में प्रधान विजय आदि चार देवियां विधिपूर्वक भगवान्का जातकर्म कर रही थीं ||३७||
भगवान् के जन्मोत्सवके पूर्व ही कुबेरने सूर्यपुरकी अद्भुत शोभा बना रखी थी । उसके महलोंपर बड़ी-बड़ी ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं तथा वह इन्द्रलोककी शोभाको जीतनेके लिए उद्यत सरीखा जान पड़ता था । अपने-अपने इन्द्रों सहित चारों निकायोंके सुर और असुर आदर के साथ शीघ्र ही आकर जिनेन्द्र भगवान्की भक्ति से उस नगरकी तीन प्रदक्षिणाएँ दे उसकी शोभा देखने लगे ||३८|| तदनन्तर सज्जनोंक सखा और मर्यादाको जाननेवाला इन्द्र नगर में प्रवेश कर शिवादेवीके महलके समीप खड़ा हो गया और हींसे उसने आदरसे युक्त, पवित्र एवं चंचलता से रहित इन्द्राणीको जात बालकके लानेका आदेश दिया। पतिको आज्ञानुसार इन्द्राणीने प्रसूतिकागृह में प्रवेश किया। उस समय आदरसे भरी इन्द्राणी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ||३९|| वहां उसने यत्नपूर्वक जिन-माताको प्रणाम कर मायामयी निद्रामें सुला दिया तथा देव- मायासे एक दूसरा बालक बनाकर उनके समीप लिटा दिया। तदनन्तर इन्द्राणीने कोमल हाथों से जिन बालकको उठाकर अपने स्वामी - इन्द्र के लिए दे दिया और देवोंके राजा इन्द्रने शिरसे जिन - बालकको प्रणाम कर दोनों हाथोंसे उन्हें ले लिया ||४०|| जिन्होंने अपने मुखरूपी चन्द्रमाके द्वारा चन्द्रमाको जीत लिया था, नेत्रोंसे पुण्डरीक -- सफेद कमलको जीत लिया था, शरीरकी कान्तिसे नील कमलोंके वनको शोभाको प्रमुख रूप से पराजित कर दिया था और अपने हाथों तथा पैरोंसे कमलोंको पराभूत कर दिया था ऐसे जिनेन्द्र बालकको उस समय इन्द्र एक हजार नेत्रोंसे भी देखकर तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ उसकी देखनेकी उत्कण्ठा ज्यों१. स्थितिविद् + आदिदेश + आदृताम् । २. जिनेन्द्रमुख-म., ग. । ३. जिनपद्म-म. ।
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