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सप्तत्रिंशः सर्गः
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निशम्य सा स्वप्नफलं पतीरितं प्रतुष्टचित्ता सुतमकवर्तिनम् । विचिस्य चक्रे जिनपूजनादिकाः क्रियाः प्रशस्ता जनतामनोहराः ॥४६॥ 'जिनोद्भवे स्वप्नफलानुकीर्तनं पवित्रसुस्तोत्रमिदं दिने दिने ।
प्रमातसंध्यासमये पठन् जनः स्मरंश्च शृण्वन् श्रयते जिनश्रियम् ॥४७॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती स्वप्नफलकथनो नाम
सप्तत्रिंशः सर्गः।
इस प्रकार पतिके द्वारा कहे हुए स्वप्न के फलको सुनकर रानी शिवादेवीका चित्त बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। और पूर्वोक्त गुण विशिष्ट पुत्र मेरी गोदमें आ ही गया है, ऐसा विचारकर वह समस्त जनसमूहके मनको हरनेवाली जिनपूजा आदि उत्तम क्रियाएँ करने लगीं ॥४६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य, जिनेन्द्र भगवान्के जन्मसे सम्बद्ध स्वप्नोंके फलका वर्णन करनेवाले इस स्तोत्रका प्रतिदिन प्रातः-सन्ध्याके समय पाठ करता है, स्मरण करता है, अथवा श्रवण करता है वह जिनेन्द्र भगवान्की लक्ष्मीको प्राप्त होता है ।।४७॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें स्वप्नों के
फलका वर्णन करनेवाला संतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३७॥
१. जिनोद्भवस्वप्नफलानुकीर्तनं क. ।
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