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हरिवंशपुराणे विमाननाथामरनाथकोटिमिः प्रपूजिताघ्रिः सुविमानदर्शनात् । 'विमानसाधिः महतो महोदयो विमानमुख्यादवतीर्णवानिह ॥३९॥ भवेत्तु भेत्ता भवपारस्य स फणीन्द्र निर्यद्भवनावलोकनात् । सुतोऽन्वितश्चापि मतितावधिप्रधाननेत्रत्रितयेन जायते ॥४०॥ बहुप्रकारस्फुरदंशुरञ्जितं धुरनराशिप्रविलोकनारसुतम् । प्रतीहि नानागुणरत्नराशिना श्रयिष्यमाणं शरणाश्रिताश्रयम् ॥४१॥ शिखावलीलोढनमस्तलोज्ज्वलत्प्रदक्षिणावर्तविधूमवहितः । निरीक्षिताद्ध्यानमहाहुताशनः स कर्मक सकलं प्रवक्ष्यति ॥४२॥ किरीटसत्कुण्डलपूर्वभूषणाः प्रभावतस्तस्य मदीयशासनम् । अलंकरिष्यन्त्यनुकूलसेवकाः सुरेश्वराः प्राकृतपार्थिवा इव ॥४३॥ श्लथारमधम्मिल्ललसन्निजस्रजः समेखलानपुरमजुशिक्षिताः । प्रसाधनादावनुमावतोऽस्य ते सुरेन्द्रसुन्दर्य उपासनोद्यताः ॥४४॥ जनिष्यमाणेन जिनेन्द्रभानुना प्रतीहि तेनात्र पवित्रकर्मणा।
स्ववंशमात्मानमिमं च मां जगत्पवित्रितं भूषितमुद्धतं तथा ॥४५॥ होता है कि तुम्हारे पुत्रकी आज्ञा सर्वोपरि होगी और वह देदीप्यमान मणियोंसे जगमगाते मुकुटोंपर हाथ लगाये हुए देव-दानवोंसे घिरे उत्तम सिंहासनपर आरूढ़ होगा ॥३८॥ उत्तम विमानके देखनेसे यह सूचित होता है कि विमानोंके स्वामी इन्द्रोंकी पंक्तियोंसे उसके चरण पूजित होंगे, वह मानसिक व्यथासे रहित होगा, महान् अभ्युदयका धारक होगा और बहुत बड़े मुख्य विमानसे वह यहाँ अवतार लेगा ॥३१॥
___ नागेन्द्रके निकलते हुए भवनको देखनेसे यह प्रकट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र संसाररूपी पिंजड़ेको भेदनेवाला होगा और मति श्रुत तथा अवधिज्ञानरूपी तीन प्रमुख नेत्रोंसे युक्त होगा ॥४०॥ आकाशमें रत्नोंकी राशि देखनेसे तुम यह विश्वास करो कि तुम्हारा पुत्र बहुत प्रकारकी देदीप्यमान किरणोंसे अनुरंजित होगा, नाना प्रकारके गुणरूपी रत्नोंकी राशि उसका आश्रय लेगी और वह शरणागत जोवोंको आश्रय देनेवाला होगा ॥४१॥ और ज्वालाओंके समूहसे व्याप्त आकाशमें देदीप्यमान तथा दक्षिणावर्तसे युक्त निर्धूम अग्निके देखनेसे यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा पुत्र ध्यानरूपी महाप्रचण्ड अग्निको प्रकट कर समस्त कर्मोके वनको जलावेगा ॥४२॥
हे प्रिये ! उस पुत्रके प्रभावसे मुकुट तथा उत्तम कुण्डल आदि आभूषणोंसे सुशोभित इन्द्र साधारण राजाओके समान अनुकूल सेवक होकर मेरी आज्ञाका अलंकृत करेंगे ।।४३।। अपनी चोटीमें गुंथी हुई जिनकी निजको मालाएं ढोली हो रही हैं तथा जो मेखला और नूपुरोंकी मनोहर झकारसे युक्त हैं ऐसी इन्द्रको इन्द्राणियां इसके प्रभावसे सजावट आदिके कार्यमें तेरी सेवा करनेके लिए सदा उद्यत रहेंगी ॥४४॥ हे प्रिये ! यहाँ पवित्र कर्म करनेवाला जो जिनेन्द्ररूपी सूर्य उत्पन्न होनेवाला है उससे तुम अपने वंशको, अपने आपको, इस मुझको तथा समस्त जगत्को पवित्रित भूषित एवं संसार-सागरसे उद्धृत समझो ॥४५।।
१. विमाननाथोऽमरनाथ-म.। २. विगतो मानसाधिः मानसी व्यथा यस्य सः। ३. एकोनचत्वारिंशत्तमः श्लोकः 'ग' पुस्तके एवं पठितः-'विमानसंदर्शनतो नुता नतो विमाननाथामरनाथकोटिभिः। प्रपूजितांहिमहतो महोदयो विमानमुख्यादवतीर्णवानिह ।।३९।। ४. मुद्धतं म, ।
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