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हरिवंशपुराणे तुमुलरणशतानि त्रीणि 'स प्रीणितास्तैर्यदुभिररिषु चत्वारिंशतं षट् च युद्ध वा । श्रमनुदमिव वीरो वीरशय्यां यशस्वी हरिशरमुखपीतप्राणसारोऽध्यशेत ॥७३॥ प्रमदमथ वहन्तः संततं संवसन्तो हैरिपुरि मथुरायां माथुरैः पौरलोकः । हरिहलधरवीरावार्यवीर्यावलेपप्रतिहतरिपुशङ्काः शौरयो रेमिरेऽमी ॥७४॥ शमयति रिपुलोकोदारदावावलेपं जनयति जनबन्धुर्वन्धुलोकप्रहर्षम् । जिनमतघनचर्यावारिधाराततिर्भूवलयफलसमृद्धिः श्रीयशोमालिनीयम् ॥७५॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ कंसापराजितवधवर्णनो नाम
षट्त्रिंशः सर्गः।
था ॥७२॥ वीर अपराजितने सन्तुष्ट होकर शत्रुओंके बीच यादवोंके साथ तीन सौ छियालीस बार युद्ध किया परन्तु अन्तमें वह श्रीकृष्णके बाणोंके अग्रभागसे निष्प्राण हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। पृथिवीपर पड़ा यशस्वी अपराजित ऐसा जान पड़ता था मामो थकावटको दूर करनेवाली वीरशय्यापर ही शयन कर रहा हो ||७३।। अथानन्तर जो निरन्तर हर्षको धारण कर रहे थे, कृष्णपुरी मथुरामें निवास करते थे और कृष्ण तथा बलभद्रके अवायं वीर्यके गर्वसे जिनकी शत्रुकी शंका नष्ट हो गयी थी ऐसे यादव लोग मथुरावासी नागरिक जनोंके साथ क्रीड़ा करने लगे ॥७४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो समस्त जीवोंके लिए बन्धुके समान है, पृथिवीमण्डलके फलोंकी समृद्धिको बढ़ानेवाली है तथा लक्ष्मी और यशकी मालासे सहित है ऐसी यह जिनेन्द्र मतरूपी मेघके जलको धारा शत्रुसमूहरूपी प्रचण्ड दावानलके गर्वको शान्त करती है और बन्धुजनोंके प्रकृष्ट बहुत भारी हर्षको उत्पन्न करती है ।।७५॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कंस और
अपराजितके वधका वर्णन करनेवाला छत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥२६॥
१. सप्रीणितास्ते म.। २. वंशहेतोः ख., संवहन्तो म., क.। शं वहन्ता ग.। ३. हरिरिपु म., हरिपुर म.।
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