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हरिवंशपुराणे
प्रतिविहितसुपूजः खेचरेन्द्रस्य दूतः प्रमुदितमतिरिश्वा स्वास्पदं स्वामिनेऽसौ । वरगुणनुतपूर्व सर्वकार्यस्य सिद्धिं सममणदिति तोषी' तोषिणे सप्रियाय ॥ ५९ ॥ भुवि हरिबलदेवौ भ्रातरौ भ्राजमानौ प्रतिहतपरतेजोरूपकान्ती विदित्वा । निजवचनहरा स्यात्खेचरेन्द्रः सुकेतुः खचरप-रतिमालश्चागतौ कन्यकाभ्याम् ॥६०॥ र तिमिव रतिमाको रूपतो रेवतीं स्वां दुहितरमतिकान्तां देहजां ज्यायसेऽदात् । अतिमुदितसुकेतुः सत्यभामां प्रभायाः स्वयमुपपदवत्या गर्मज केशवाय ॥ ६१ ॥ कुचकलशकलं त्रोदारभारातिखिन्नाः शिथिलवसन काञ्ची केशपाशोत्तरीयाः । ननृतुरिह विवाहे नूपुरारावरम्याः क्षितिचरखचराणां योषितः शोचिवेषाः ॥६२॥ प्रथमनववधूकौ नीलपीताम्बरौ तौ विविधमणिविभूषाज्योतिरुद्भासिताङ्गौ । यदुनृपतिपरीतौ वीक्ष्य पुत्रावतोषीद्यदुयुवतिसमग्रा रोहिणी देवकी च ॥ ६३ ॥ प्रथम मदनरङ्गे शाङ्गिणः सत्यभामा हृदयमहरदिष्टश रेवती शीरपाणेः । गुणित गुणकलानां सुप्रेयोगैस्तयोस्तावचितकरणकाले न स्खलन्ति प्रगत्माः ॥ ६४ ॥ अथ सकलुषमावा सा जरासन्धराजं जलनिधिमिव वेला व्याकुला क्षोभयन्ती । अतिविततत मालोन्नील केशाप्य रोदीद्यदुकुल कृतदोषं कंसयोषिद्वदन्ती ॥ ६५ ॥
तदनन्तर कृष्णकी ओरसे जिसका सत्कार किया गया था और जिसकी बुद्धि अत्यन्त प्रसन्न थी ऐसा राजा सुकेतुका वह दूत अपने स्थानपर चला गया। वहां जाकर उसने पहले कृष्ण के उत्तम गुणोंकी स्तुति की, उसके पश्चात् सन्तुष्ट होकर, वल्लभाके साथ बैठे ! हुए सन्तोषी राजा सुकेतु के लिए सर्व कार्यके सिद्ध होने की सूचना दी || ५९ ॥ ' पृथिवीपर श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों अत्यन्त देदीप्यमान हैं तथा शत्रुओंके तेज, रूप और कान्तिको खण्डित करनेवाले हैं' इस प्रकार अपने दूतके मुख से जानकर विद्याधरोंका राजा सुकेतु और उसका भाई रतिमाल अपनी-अपनी कन्याओं के साथ मथुरा आ पहुँचे ||६० || रतिमालकी कन्याका नाम रेवती था और वह रूपमें साक्षात् रतिके समान जान पड़ती थी । रतिमालने अपनी वह सुन्दर कन्या बड़े भाई बलभद्रके लिए दी और अत्यन्त प्रसन्न सुकेतुने स्वयंप्रभा रानीके गर्भ से उत्पन्न अपनी सत्यभामा नामक पुत्री कृष्ण के लिए दी || ६१ ॥ इस विवाह - मंगलके अवसरपर जो स्तनरूपी कलश और नितम्बोंके बहुत भारी भारसे खिन्न थीं, जिनके वस्त्र, मेखला, केशपाश और उत्तरीय वस्त्र शिथिल हो रहे थे, जो नूपुरोंकी झनकारसे मनोहर जान पड़ती थीं और उज्ज्वल वेषको धारण करनेवाली थीं ऐसी भूमिगोचरी एवं विद्याधरोंकी स्त्रियोंने नृत्य किया था ||६२|| जो पहली पहली नयी वधुओंसे सहित थे, नील और पीत वस्त्र धारक थे, नाना प्रकारके मणिमय आभूषणोंकी कान्तिसे जिनके शरीर देदीप्यमान हो रहे थे तथा जो चारों ओर बैठे हुए यदुवंशी राजाओंसे घिरे हुए थे ऐसे अपने पुत्रों को देखकर यादवोंकी स्त्रियोंसे युक्त रोहिणी तथा देवकी अत्यधिक सन्तुष्ट हो रही थीं ॥ ६३॥ प्रथम समागम में ही सत्यभामाने कृष्णके तथा अतिशय प्रिय रेवतीने बलभद्रके हृदयको हर लिया था । इसी प्रकार कृष्ण तथा बलभद्रने भी अभ्यस्त गुण और कलाओंके उत्तमोत्तम प्रयोगोंसे उन का हृदय हर लिया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य उचित कार्यके करने के समय कभी नहीं चूकते हैं ||६४||
तदनन्तर जिसका हृदय अत्यन्त कलुषित था, जो अत्यधिक व्याकुल थी और जिसके तमाल पुष्पके समान काले-काले केश बिखरे हुए थे ऐसी कंसकी स्त्री जीवद्यशा, राजा जरासन्धके पास जाकर यदुवंशियोंके द्वारा किये हुए दोषका बखान करती हुई रोने लगी तथा जिस प्रकार वेला १. तेषां म । २. तोषणे म., ग. । ४. नितम्ब । ५. सुप्रयोगौ तयो-म. । ६. तमालानील- म. |
३. हरबलदेवो म. ।
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