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हरिवंशपुराणे
विलङ्घितक्ष्माभृतमग्रशैलगं मृगाङ्कलेखाङ्कुशदंष्ट्रमायतम् । दिगन्तविश्रान्तनिनादमाविशत् शरत्पयोदामभिभारिमैक्षत ॥ ८ ॥ महेमकुम्भामकुचामिभैः शुभैः कृताभिषेकां कुटगन्धवारिभिः । केरश्रिताम्भोजपुटां ददशं सा विकासिपद्मासनवर्तिनीं श्रियम् ॥९॥ स्रजौ प्रलम्बे विमलाम्बरे वरे रजोरुणीभूतषडङ्घ्रिमण्डले । भुजे निजे वा कुसुमातिकोमले सजागरेवादहिता व्यलोकत ॥१०॥ निरस्य नैशं निशितैरुपागतं करैस्तमोजाळमलं निशाकरम् । निरभ्रिते व्योम्नि प्रपश्यति स्म स्थिरागृहासं रजनीवरस्त्रियाः ॥ ११ ॥ दिनं दिनं दृश्यमुखं दिवाकरं सुसान्ध्यसिन्दूरपरागपिञ्जरम् । पुरन्दराशा सुपुरन्धिनन्दनं चिरं धृतं दृष्टिसुखं ददर्श सा ॥ १२ ॥ तडिच्चाङ्गं सरसीवराङ्गनाविलोलसल्लो चनयुग्ममायतम् । परस्परस्नेहमरं तयारमद् व्यलोकि सन्मत्स्ययुगं विमत्सरम् ॥१३॥ सुसौर माम्मो भरकुम्भयुग्मकं मुखाहिताम्भोरुहमम्बुजेक्षणा । सुशातकुम्भात्मकमभ्यलोकत स्वभावसूद्यत्कुचकुम्भसंनिमम् ॥१४॥ शुभाम्बुपूर्ण जलपुष्पराजितं सुराजहंसादिविहङ्गसंगतम् ।
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महासरोऽदर्शि ततो मनोहरं मनो निजं वा शुचि निर्मलं तथा ॥ १५॥
शब्द कर रहा था तथा नेत्रोंके लिए अत्यन्त प्रिय था || ७|| तीसरे स्वप्न में एक ऐसा सिंह देखा जो को लांघनेवाला था, पर्वतके अग्रभागपर स्थित था, चन्द्रमाकी कला अथवा अंकुशके समान दौढ़ों को धारण करनेवाला था, शरीरका अत्यन्त लम्बा था, जिसका शब्द दिशाओंके अन्तमें विश्राम कर रहा था और जो शरद् ऋतुके घुमड़ते हुए मेघ के समान सफेद था ||८|| चौथे स्वप्न में वह लक्ष्मी देखी जो किसी बड़े हाथीके गण्डस्थलोंके समान स्थूल स्तनोंसे युक्त थी, शुभ हाथी घड़ों में रखे हुए सुगन्धित जलसे जिसका अभिषेक कर रहे थे, जो अपने हाथमें कमल लिये हुए थी और खिले हुए कमलोंके आसनपर बैठी थी || ९ || पाँचवें स्वप्न में जागती हुईके समान सावधान शिवादेवीने निर्मल आकाशमें लटकती हुई दो ऐसी उत्तम मालाएँ देखीं जिन्होंने अपने परागसे भ्रमरोंके समूहको लाल-लाल कर दिया था और जो अपनी भुजाओंके समान फूलोंसे भी कहीं अधिक सुकोमल थीं ( पक्षमें फूलोंके द्वारा अत्यन्त कोमल थीं ) ||१०|| छठे स्वप्न में उसने निरभ्र आकाशके बीच ऐसा चन्द्रमा देखा जो अपनी तीक्ष्ण किरणों ( पक्षमें हाथों ) से रात्रिके सघन अन्धकारके समूहको नष्ट कर उदित हुआ था और रात्रिरूपी स्त्रीके स्थिर अट्टहासके समान जान पड़ता था || ११|| सातवें स्वप्न में ऐसा सूर्य देखा जिसका मुख सम्पूर्ण दिन दर्शनीय था, जो सन्ध्याकी लालीरूपी सिन्दूरकी परागसे पिंजर वर्णं था, पूर्व दिशारूपी स्त्रीके पुत्रके समान जान पड़ता था और नेत्रों के लिए चिरकाल तक सुख उत्पन्न करनेवाला था || १२ || आठवें स्वप्न में उसने मत्स्योंका वह युगल देखा जो बिजलीके समान चंचल शरीरका धारक था, सरसीरूपी उत्तम स्त्रीके चंचल एवं समीचीन नेत्रोंके युगल के समान जान पड़ता था, लम्बा था, पारस्परिक स्नेहसे भरा हुआ था, क्रीड़ा कर रहा था और ईर्ष्यासे रहित था || १३|| नौवें स्वप्न में कमललोचना शिवादेवीने अत्यन्त सुगन्धित जलसे भरे हुए दो ऐसे कलश देखे जिनके मुखपर कमल रखे हुए थे, जो उत्तम स्वर्णसे निर्मित थे और स्वभावसे उठते हुए कुचकलशके समान जान पड़ते थे ||१४|| तदनन्तर दशवें स्वप्न में उसने एक ऐसा बड़ा सरोवर देखा जो शुभ जलसे भरा हुआ था, कमलोंसे सुशोभित था, राजहंस आदि उत्तम पक्षियोंसे युक्त था, मनको हरण करनेवाला था और अपने १. विलम्बित - म. । २. करोद्धृताम्भोजपुटां ख । ३. सुसाध्य म । ४. मुखावहिताम्भोरुह - म. ।
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