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हरिवंशपुराणे धनुस्ततोऽधिज्यमसौ व्यधत्त भुजङ्गमोद्गीणविकीर्णधूमम् । अपूरयच्छङ्खमखेदमाशाः प्रपूरयन्तं निखिला निनादैः ॥७७॥ जनस्तदालोक्य तदातिलोकं तदीयमाहात्म्यमुदीयमानम् । अघोषयरक्षुब्धसमुद्रघोषो महानहो कोऽप्ययमित्यशेषः ॥७॥ कुकंसशङ्कां वहताग्रजेन निजेन नीत्या प्रहितो हरिस्तु । महानुकूलो व्रजमात्मनीनैः सहाव्रजत्तीव्रगुणानुरागैः ॥७९॥
शालिनीच्छन्दः गर्भाधानात्पूर्वमा प्रसूतेराबद्धान्तर्वैरभावोऽपि शत्रुः । मत्तः कुर्यात्कि झुदात्तस्य पुंसो जैनाद्धर्मात् पूर्वजन्मप्रयातात् ॥८॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती कृष्णबालक्रीडावर्णनो
नाम पञ्चविंशः सर्गः ॥३५॥
स्वाभाविक शय्याके समान शीघ्र चढ़ गये ॥७६॥ तदनन्तर उन्होंने सांपोंके द्वारा उगले हुए धूम को बिखेरनेवाले धनुषको प्रत्यंचासे युक्त किया और शब्दोंसे समस्त दिशाओंको भरनेवाले शंखको खेद रहित-अनायास ही पूर्ण कर दिया ।।७७॥ उस समय कृष्णके प्रकट होते हुए लोकोतर माहात्म्यको देखकर समस्त लोगोंने घोषणा की कि अहो, क्षुभित समुद्रके समान शब्द करनेवाला यह कोई महान् पुरुष है ।।७८! कृष्णका यह पराक्रम देख बड़े भाई बलदेवको दुष्ट कंससे आशंका हो गयी इसलिए उन्होंने महान् आज्ञाकारी कृष्णको, साथ-साथ जानेवाले गुणोंके तीव्र अनुरागी आत्मीय जनोंके साथ व्रजको भेजा। भावार्थ-बलदेवने कंससे शंकित हो कृष्णको अकेला नहीं जाने दिया किन्तु 'यह बहुत गुणी है, इसलिए सब लोग इसे भेजने जाओ' यह कहकर अपने पक्षके बहुत-से लोगोंको उनके साथ कर दिया ।।७९।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो पूर्व जन्ममें प्राप्त हुए जैन धर्मसे उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ है उस मनुष्यका मदोन्मत्त शत्रु क्या कर सकता है ? भले ही वह गर्भाधानसे पूर्व और जन्मके पहले ही हृदयमें वैरभाव बाँधकर बैठा हो ॥८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कृष्णकी
बालक्रीड़ाओंका वर्णन करनेवाला पैंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ।॥३५॥
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