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पञ्चत्रिंशः सर्गः सुशाल्मलीखण्डसुमण्डपस्य'सुदुर्भरास्तम्मततिं परेषाम् । तमुक्षिपन्तं स्वदयं विदित्वा भ्यवर्तयत्सा जननी विशङ्का ॥७॥ निवृत्त्य कंसः पुंरि घोषणां स्वैरघोषयदेवविदुक्तकारो। गवेषणार्थ द्विषतो निजस्य स पापशापाभिमुखः सुखार्थी ॥१॥ भुजङ्गशय्यामिह सिंहवाहं शरासनं चाप्यजितं जयान्तम् । सपाञ्चजन्याब्जमथारुहेद्यः करोत्यधिज्यं परिपरयेच्च ॥७२॥ ददाति तस्मै पुरुषोत्तमाय पराजिताशेषपराक्रमाय । अलभ्यलार्म समभीष्टमिष्टः प्रहृष्टकंसः पुरुषान्तरज्ञः ॥७३॥ इति प्रवृत्तिश्रवणात्प्रवृत्तास्ततस्तदारोहणपूर्विकासु । क्रियासु निस्तर्जितवृत्तयश्च महीक्षितो जग्मुरतो विलक्षाः ॥७॥ अथानयभानुरुपेन्द्रमर्थी सहोदरोऽसौ खलु कंसवध्वाः । तदीयसामर्थ्यमुदीक्ष्य जातु प्रजाततोषो मथुरापुरी ताम् ॥७५॥ महाहिशय्यामिह सज्जितां तां विलोक्य चन्द्रव्यपदेशपृष्टाम् । समारुहद्भीषणभोगिभोगां स्वभावशय्यामिव शौरिराशु ॥७६॥
अत्यन्त विकृत थी कृष्णने उसे देखते ही मार भगाया ॥६९।। व्रजमें एक शाल्मली वृक्षकी लकड़ीका मण्डप तैयार हो रहा था वहां उसके ऐसे बड़े-बड़े खम्भोंका समूह पड़ा था जिसे दूसरे लोग उठा नहीं सकते थे परन्तु कृष्णने उन्हें अकेले ही उठाकर ऊपर चढ़ा दिया। यह जान माताने निःशंक हो उन्हें व्रजसे वापस लौटा लिया ॥७०|| दुष्ट एवं सुखार्थी कंसको जब कृष्ण गोकुलमें नहीं मिले तब वह मथुरा लौट आया। उसी समय उसके यहाँ सिंहवाहिनी नागशय्या, अजितंजय नामका धनुष और पांचजन्य नामका शंख ये तोन अद्भत पदार्थ प्रकट हुए। कंसके ज्योतिषीने बताया कि 'जो कोई नागशय्यापर चढ़कर धनुषपर डोरी चढ़ा दे और पांचजन्य शंखको फूंक दे वही तुम्हारा शत्रु है', अतः ज्योतिषीके कहे अनुसार कार्य करनेवाले कंसने अपने शत्रुकी तलाश करनेके लिए आत्मीय जनोंके द्वारा नगरमें यह घोषणा करा दी कि 'जो कोई यहाँ आकर सिंहवाहिनी नागशय्यापर चढ़ेगा, अजितंजय धनुषको डोरीसे सहित करेगा और पांचजन्य शंखको
॥ वह पूरुषोंमें उत्तम तथा सबके पराक्रमको पराजित करनेवाला समझा जावेगा। पुरुषोंके अन्तरको जाननेवाला कंस उसपर बहुत प्रसन्न होगा, अपने आपको उसका मित्र समझेगा तथा उसके लिए अलभ्य इष्ट वस्तु देगा' ॥७१-७३।।
___ कंसकी यह घोषणा सुन अनेक राजा मथुरा आये और नागशय्यापर चढ़ने आदिको क्रियाओंमें प्रवत्ति करने लगे परन्तु सब भयभीत हो लज्जित होते हए चले गये ॥७४॥ एक दिन कंसकी स्त्री जीवद्यशाका भाई भानु, किसी कार्यवश गोकुल गया। वहां कृष्णका अद्भत पराक्रम देख वह बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें अपने साथ मथुरापुरी ले आया ।।७५॥
यहां, जिसके समीपका प्रदेश अत्यन्त सुसज्जित था, जिसका पृष्ठ भाग चन्द्रमाके समान उज्ज्वल था एवं जिसके ऊपर भयंकर सर्पोके फण लहलहा रहे थे ऐसी महानाग शय्यापर कृष्ण
कमाल.
१. सुदुर्भरास्तम्भततिः म.। २. पुरघोषणां म.। ३. देवविदुक्त-म. । ४. सिंहवाह म.। ५. स रुषान्तरज्ञः म.। ६. निस्तेजितवृत्तयः ग, । ७. सज्जितान्तं म.। ८. चेन्द्रस्य पदे स पृष्ट्वा म. (?)। चेन्द्रस्य पदेश दृष्ट्वा ग. (?)।
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