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पात्रशः सर्गः
सुपीतवासोयुगलं वसानं वनेवतंसीकृतवर्हिवर्हम् । अखण्डनीलोत्पलमुण्डमालं सुकण्ठिकाभूषितकम्बुकण्ठम् ॥ ५५ ॥ सुवर्णकर्णामरणोज्ज्वलामे सुबन्धुजीवालिक मुच्छमौलिम् । हिरण्यरो चिर्वयेप्रकोष्ठ सुपादगोपाळ कसानुवंशम् ॥ ५६ ॥ यशोदयानीय यशोदयाढ्यं प्रणामितं पुत्रमसौ सवित्री । सुगोपवेषं निकटे निषण्णं परामृशन्तो चिरमालुलोके ॥५७॥ जगौ च देवी विपिनेऽपि वासस्तवेदृशापश्यदृशो यशोदे । यशस्विनि इलाध्यतमो जगत्यां न राज्यलामोऽभिमतोऽनपत्यः ॥ ५८॥ जगाद गोपी भवती यथाह तथैव मे स्वामिनि सत्यमेतत् । तथैव संतोषविशेषपोषी प्रियाशिषा जीवतु नित्यभृत्यः ॥५९॥ इहान्तरे सा सुतदर्शनेन सुनिर्भरप्रस्नुतसुस्तनौ तौ ।
शशाक नो संवरितं क्षरन्तौ न संवृतिः स्यात्सति चित्तभेदे ॥ ६० ॥ रिपोर्मयात्पुत्र वियोजितोऽसि न दुष्टबुद्धयेति विशुद्धिमन्तः । स्तनक्षररक्षीरनिभेन राशी प्रदर्शयन्तीव तदा रराज ॥ ६१ ॥ प्रकाशमीरुः सहसा ततोऽसौ हलायुधः क्षीरघटेन दक्षः । तदाभ्यषिञ्चत्स्वयमञ्चितास्थां न मुह्यति प्राप्तकृतौ कृती हि ॥ ६२ ॥
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पूर्वक नमस्कार किया ॥५४॥ तत्पश्चात् जो पीले रंगके दो वस्त्र पहने हुए था, वनके मध्य में मयूर - पिच्छको कलंगी लगाये हुए था, अखण्ड नील कमलको माला जिसके शिरपर पड़ी हुई थी, जिसका शंख के समान सुन्दर कण्ठ उत्तम कण्ठीसे विभूषित था, सुवर्णके कर्णाभरणोंसे जिसकी आभा अत्यन्त उज्ज्वल हो रही थी, जिसके ललाटपर दुपहरियाके फूल लटक रहे थे, जिसके शिरपर ऊंचा मुकुट बँधा हुआ था, जिसकी कलाइयोंमें सुवर्णके देदीप्यमान कड़े सुशोभित थे, जिसके साथ अनेक सुन्दर गोपाल बालक थे एवं जो यश और दयासे सहित था ऐसे पुत्रको लाकर यशोदाने देवकीके चरणोंमें प्रणाम कराया। उत्तम गोपके वेषको धारण करनेवाला वह पुत्र प्रणाम कर पासमें ही बैठ गया । माता देवकी उसका स्पर्श करती हुई चिरकाल तक उसे देखती रही ॥५५-५७॥ देवकीने यशोदासे कहा कि हे यशस्विनि यशोदे ! तू ऐसे पुत्रका निरन्तर दर्शन करती है अतः तेरा वनमें भी रहना प्रशंसनीय है। यदि पृथिवीका राज्य भी मिल जाये पर सन्तान न हो तो वह राज्य अच्छा नहीं लगता ||५८|| इसके उत्तर में गोपी यशोदाने कहा कि हे स्वामिनि ! आपने जैसा कहा है यह वैसा ही सत्य है । मेरे मनके सन्तोषको अत्यधिक रूपसे पुष्ट करनेवाला यह सदाका दास आपके प्रिय अशीर्वादसे चिरंजीव रहे यही प्रार्थना है ||५९ ॥
इसी बीच पुत्रको देखनेसे देवकी रानीके दोनों स्तन अत्यधिक दूधसे परिपूर्ण हो गये । वह उन झरते हुए स्तनोंको रोकने में समर्थ नहीं हो सकी सो ठीक हो है क्योंकि चित्तमें भेद पड़ जानेपर किसी बातका छिपाना नहीं हो सकता ||६०|| उस समय स्तनोंसे झरते हुए दूध के बहाने रानी, 'हे पुत्र ! शत्रुके भयसे मैंने तुझे वियुक्त किया है दुष्ट बुद्धिसे नहीं' अपने अन्तरंगको इस विशुद्धिको दिखाती हुई समान सुशोभित हो रही थी ||६१ || 'कहीं रहस्य न खुल जाये' इससे भयभीत हो बुद्धिमान् बलदेवने उसी समय स्वयं ही दूधके घड़ेसे प्रेमपूर्ण माताका अभिषेक कर दिया - उसके ऊपर दूधसे भरा घड़ा उड़ेल दिया सो ठीक ही है क्योंकि कुशल मनुष्य अवसर के १. वलयः प्रकोष्ठं म. । २. सानुवंशे म. । ३. यशश्च दया चेति यशोदये ताभ्याम् आढ्य सहितम् । ४. दोषी म. । ५. प्रस्तुत म । ६. मञ्चितास्था ग. ।
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