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पञ्चत्रिंशः सर्गः
जगावसौ कोऽपि ममास्ति वैरी प्रवर्धमानः क्वचिदप्यलक्ष्यः । तमाशु यूयं परिमृग्य मृत्योर्मुखे कुरुध्वं करुणानपेक्षाः ॥४०॥ इतीरितं ताः प्रतिपद्य याताः प्रदृश्य चैकोग्रशकुन्तरूपा । प्रनुद्य हन्त्री हरिणात्ततुण्डा प्रचण्डनादा प्रणनाश भीता ॥ ४१ ॥ कुपूतना पूतनभृतमूर्तिः प्रपाययन्ती सविषस्तनौ तम् । स देवताधिष्टितनिष्ठुरास्यो व्यरीरटच्चूचुकचूपणेन ॥ ४२ ॥ स्वपन्निषीदन्नुरसा प्रसर्पन् पदं ददन्नस्खलितं प्रधावन् । कलाभिलापो नवनीतमद्यन्नजोगम जिष्णुरहर्दिनानि ॥ ४३ ॥ अनःशरीरामपरां पिशाचीं स चापतन्तीं धनपादघाती । विभीमञ्जाञ्जनशैलशोमी पृथूदयस्तां पृथुकोऽपि कोऽपि ॥ ४४ ॥ यशोदया दामगुणेन जातु यदृच्छयोदूखलबद्धपादः । निपीडयन्तौ रिपुदेवतागौ न्यपातयत्तौ जमलार्जुनौ सः ॥४५॥ सुनन्दगोपेन यशोदया च सुदृष्टशेोक्तिः शुभशैशवादौ । सविस्मिताभ्यामभिनन्द्यमानो बालः स दृश्यो ववृधे वनान्ते ॥४६॥ स गोपतिं दृप्तमशेष घोषमितस्ततो दृष्टमुदग्र घोषम् । महार्णवं वा प्रतिपूर्ण यन्तं जघान कण्ठोद्बलनात्सुकण्ठः ॥४७॥
ये हम सब तुम्हारे पूर्वं भवके तपसे सिद्ध हुई देवियां हैं। आपका जो कार्य हो वह कहिए, बलभद्र और नारायणको छोड़कर कंसका कौन-सा शत्रु क्षण-भर में नष्ट करने योग्य है सो बताओ ॥ ३८-३९॥ कंसने कहा कि हमारा कोई वैरी कहीं गुप्त रूपसे बढ़ रहा है सो तुम लोग दयासे निरपेक्ष हो शीघ्र ही पता लगाकर उसे मृत्युके मुखमें करो - उसे मार डालो ||४०|| इस प्रकार कंसके द्वारा कथित बातको स्वीकृत कर वे देवियाँ चली गयीं। उनमें से एक देवी शीघ्र ही उग्र-- भयंकर पक्षीका रूप दिखाकर आयो और चोंच द्वारा प्रहार कर बालक कृष्णको मारनेका प्रयत्न करने लगी परन्तु कृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर इतनी जोरसे दबायी कि वह भयभीत हो प्रचण्ड शब्द करती हुई भाग गई || ४१ || दूसरी देवी पूतन भूतका रूप रखकर कुपूतना बन गयी और अपने विष सहित स्तन उन्हें पिलाने लगी । परन्तु देवताओंसे अधिष्ठित होनेके कारण श्रीकृष्णका मुख अत्यन्त कठोर हो गया था इसलिए उन्होंने स्तनका अग्रभाग इतने जोरसे चूसा कि वह बेचारी चिल्लाने लगी ||४२ ॥ बालक कृष्ण कभी तो सोता था, कभी बैठता था, कभी छातीके बल सरकता था, कभी लड़खड़ाते पैर उठाता हुआ चलता था, कभी दौड़ा-दौड़ा फिरता था, कभी मधुर आलाप करता था और कभी मक्खन खाता हुआ दिन-रात व्यतीत करता था ||४३|| तीसरी पिशाची शकटका रूप रखकर उनके सामने आयी परन्तु कृष्ण बालक होनेपर भी अत्यन्त निर्भय थे, अंजनगिरिके समान शोभायमान थे और अत्यधिक अभ्युदयको धारण करनेवाले कोई अनिर्वचनीय पुरुष थे इसलिए उन्होंने जोरकी लात मारकर ही उसे नष्ट कर दिया || ४४ || किसी दिन उपद्रवकी अधिकता के कारण यशोदाने कृष्णका पैर रस्सीसे कंसकर ओखली में बांध दिया था। उसी दिन शत्रुकी दो देवियाँ जमल और अर्जुन वृक्षका रूप रखकर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगीं परन्तु कृष्णने उस दशामें भी दोनों देवियोंको गिरा दिया - मार भगाया ॥ ४५ ॥ शुभ बाल्यकालके प्रारम्भमें ही सुनन्दगोप और यशोदाने जिसकी अद्भुत शक्ति देखी थी तथा आश्चर्यं से चकित हो जिसकी प्रशंसा की थी ऐसा वह दर्शनीय - मनोहर बालक वनके मध्य में बढ़ने लगा ||४६ || एक
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१. भूषणेन म । २. ददन्संस्खलितं क. । ३. अतः शरीरां म । शकटरूपामित्यर्थः । ४. कोपी ग. । ५. सुदृष्टिशक्ति: ग. । ६. वनान्तरे ग. ।
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