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चतुस्त्रिशः सर्गः
आर्या कल्याणातिविशेषैः प्रतिकार्यैः प्रातिहार्यकारणगः । जिनगुणसम्पत्तिस्तैः पञ्चतुस्त्रिंशदष्टषोडशमिः ॥१२२॥
अनुष्टुप् द्वात्रिंशता चतुःषष्टया ह्यष्टोत्तरशतेन तैः । दिव्यलक्षणपक्तिः स्यादिव्यातिमहतः परा ॥१२३॥ स्यात्परस्परकल्याणा चतुर्विंशतिवारतः । आदौ षष्ठोपवासः स्यात्समाप्तावष्टमस्तथा ॥२४॥
जिनेन्द्रगुणसंपत्ति विधि-जिसमें पांच कल्याणकोंके पांच, चौंतीस अतिशयोंके चौंतीस, आठ प्रातिहार्योंके आठ और सोलह कारण भावनाओंके सोलह इस प्रकार वेशठ उपवास किये जावें तथा एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा की जावे उसे जिनेन्द्र गुण सम्पत्ति व्रत कहते हैं। यह व्रत एक सौ छब्बीस दिन में पूर्ण होता है। इस व्रतके प्रभावसे जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् इसका आचरण करनेवाला तीर्थंकर होता है ॥१२२।।
दिव्यलक्षण पंक्ति विधि-बत्तीस व्यंजन, चौंसठ कला और एक सौ आठ लक्षण इस प्रकार दो सौ चार लक्षणोंकी अपेक्षा जिसमें दो सौ चार उपवास किये जावें उसे दिव्यलक्षण विधि कहते हैं। इसमें एक उपवासके बाद एक पारणा होतो है अतः दोनोंके मिलाकर चार सौ आठ दिनमें यह व्रत पूर्ण होता है। इस व्रतके प्रभावसे यह जीव अत्यन्त महान् होता है तथा उसके अत्यन्त श्रेष्ठ दिव्य लक्षणोंकी पंक्ति प्रकट होती है ॥१२३॥
'धर्मचक्र विधि-धर्मचक्रमें हजार अराएँ होती हैं। उनमें प्रत्येक अराकी अपेक्षा एक उपवास लिया गया है, इसलिए इस व्रतमें हजार उपवास हैं तथा स्थान भी हजार हैं इसलिए पारणा भी हजार समझनी चाहिए। इस तरह उपवास और पारणा इसमें कुल दो हजार हैं। एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपवास एक पारणा इसो क्रमसे इस व्रतका आचरण करना चाहिए। इस व्रतके आदि और अन्तमें एक-एक वेला करना आवश्यक है। यह व्रत दो हजार चार दिनमें समाप्त होता है और इससे धर्मचक्रको प्राप्ति होती है।
परस्पर कल्याण विधि-पांच कल्याणकोंके पाँच उपवास, आठ प्रातिहार्योके आठ और चौंतीस अतिशयोंके चौंतीस इस प्रकार ये सैंतालीस उपवास हैं। इन सैंतालीसको चौबीस बार गिननेपर जितनी संख्या सिद्ध हो उतने तो इस विधिमें उपवास समझना चाहिए और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिए। सैंतालीसको चौबीस बार गिननेसे ग्यारह सौ अट्ठाईस होते हैं, इसलिए इतने तो उपवास समझना चाहिए और स्थान भी ग्यारह सौ अट्ठाईस हैं इसलिए इतनी ही पारणा जाननी चाहिए । इस प्रकार इस व्रतमें कुल उपवास और पारणा दो हजार दो सो छप्पन हैं। इसके आचरण करनेको विधि एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपनास एक पारणा इस प्रकार है। यह व्रत दो हजार दो सौ छप्पन दिन में समाप्त होता है। इसके प्रारम्भमें एक वेला और अन्तमें एक तेला करना पड़ता है। यह व्रत आचरण करनेवालेका कल्याण करनेवाला १. धर्मचक्र विधिका वर्णन करनेवाला श्लोक हमारे द्वारा उपलब्ध प्रतियों में नहीं है परन्तु थोमान् स्व. पं. गजाधरलालजीने अपने अनुवादमें उसका वर्णन किया है तथा श्लोकका नम्बर भी दिया है अतः उनके द्वारा उपलब्ध प्रतियोंमें वह श्लोक होगा। इसी भावनासे हमने अनुवादमें उक्त पण्डितजी के अनुवादसे उक्त व्रतकी विधि अंकित की है। २. इस व्रतकी विधि भी पण्डित गजाधरलालजीके अनुवादके आधारपर ही लिखी है। उनके अनुवादमें 'आदो षष्ठोपवासः स्यात्समाप्तावष्टमस्तथा' इस पंक्तिका अनुवाद इस व्रतकी विधिसे हटकर आगे बढ़ गया है, उसे इसमें शामिल किया गया है।
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