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चतुस्त्रिशः सर्गः
इत्युक्तविधिर्त्तासौ सुप्रतिष्ठो यतिस्तदा । बबन्ध तीर्थकृन्नाम शुद्धैः षोडशकारणैः ॥ १३१ ॥
आर्या निशङ्काद्यष्टगुणा जिनकथिते मोक्षसत्पथे श्रद्धा ।
दर्शन विशुद्धिरास्तीर्थ करप्रकृतिकृद्धेतुः ॥१३२॥ ज्ञानादिषु तद्वत्सु च महादरो यः कषायविनिवृत्या | तीर्थंकर नामहेतुः स विनयसंपन्नताभिख्यः ॥ १३३ ॥ itsarरक्षायां काय मनोवचनवृत्तिरनवद्या | वेद्यो मार्गोद्युक्तैः स शुद्धेः शीलव्रतेष्वनतिचारः ॥१३४॥ अज्ञाननिवृत्तिफले प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणज्ञाने । नित्यमभियुक्ततोक्तस्तज्ज्ञैर्ज्ञानोपयोगस्तु ॥१३५॥ जन्मजरामरणामथमानसशारीरदुःखसंभारात् । संसाराद्भीरुवं संवेगो विषयतृट्छेदो ॥१३६॥ आहाराभयदानं तद्दिनभवदुः खमुद्यथायोगम् । संसारदुःखहरणं ज्ञानमहादानमिष्यते त्यागः ॥ १३७॥ अनिगूहितवीर्यस्य हि विशरारु शरीरमशुचि मृतकामम् । संयोजयतः कार्ये तपोऽपि मार्गानुगावेशः ॥ १३८ ॥ भाण्डागार हुताशोपशमनवजातविघ्नमनुपद्य । संधारण हि तपसः साधूनां स्यात्समाधिरिह ॥ १३९ ॥ गुणवत्साधुजनानां क्षुधातृषाव्याधिजनितदुःखस्य । व्यपहरणे व्यापारो वैव्यावृत्त्यं व्यसुद्रव्यैः ॥ १४०॥
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और मोक्ष सम्बन्धी सुख के कारण हैं १३०|| इस प्रकार कही हुई विधियोंके कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनिराजने उस समय निर्मल सोलह कारण भावनाओंके द्वारा तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया ॥ १३१ ॥ जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कथित समीचीन मोक्षमार्ग में निःशंकता आदि आठ गुणोंसे सहित जो श्रद्धा है उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं । यह तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रथम कारण है || १३२॥ ज्ञानादि गुणों और उनके धारकोंमें कषायको दूर कर जो महान् आदर करना है वह तीर्थंकर प्रकृति के बन्धमें कारणभूत विनयसम्पन्नता नामकी दूसरी भावना है ॥ १३३॥ शीलव्रतोंकी रक्षा में मन, वचन और कायकी जो निर्दोष प्रवृत्ति है उसे मार्ग में उद्युक्त पुरुषों को शुद्ध शीलव्रतेष्वनतीचार नामकी भावना जाननी चाहिए || १३४|| अज्ञानकी निवृत्तिरूप फलसे युक्त तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंसे सहित ज्ञानमें निरन्तर उपयोग रखना सो अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना है ।। १३५ ॥ जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि शारीरिक और मानसिक दुःखोंके भारसे युक्त संसारसे भयभीत होना सो विषयरूपी तृषाको छेदनेवाली संवेग भावना है || १३६ || जिस दिन आहार ग्रहण किया जाता है उस दिन एवं पर्याय सम्बन्धी दुःखको दूर करनेवाला आहारदान, अभयदान और संसारके दुःखको हरनेवाला ज्ञान महादान शक्तिके अनुसार देना सो त्याग नामकी भावना है ॥ १३७ ॥ ज्ञक्तिको नहीं छिपानेवाले एवं विनाशीक, अपवित्र और मृतकके समान शरीरको कार्य में लगानेवाले पुरुषका मोक्षमार्गके अनुरूप जो उद्यम है वह तप नामको भावना है ॥ १३८ ॥ भण्डार में लगी हुई अग्निको उपशान्त करनेके समान आगत विघ्नों को नष्ट कर साधुजनोंके तपकी रक्षा करना सो साधुसमाधि नामकी भावना है || १३९ || गुणवान् साधुजनोंके क्षुधा, तृषा, व्याधि १. शुद्धशक्तिव्रते - म., ख. । २. प्रासुकद्रव्यैः ( क. ड. टि. ) वसुद्रव्यैः म. ।
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