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चतुस्त्रिशः सर्गः
शार्दूलविक्रीडितम् त्रैलोक्यासनकम्पेशक्तसुबृहत्पुण्यप्रकृत्यात्मकः
प्रत्याख्याय स सुप्रतिष्ठसुमुनिर्भक्तं ततो मासिकम् । आराध्याथ चतुर्विधा बुधनुतामाराधना शुद्धधी
त्रिंशज्जलधिस्थितिः पुरुसुखं स्वर्ग जयन्तं 'श्रितः ॥१५॥ भुक्रवा संसृतिसारसौख्यमतुलं तत्राहमिन्द्रोचितं
सज्ज्ञानत्रयदृष्टनेत्रसकर्ल त्रैलोक्यतत्त्वस्थितिः । च्युरवातो मविता समुद्रविजयादेव्या शिवायां शिवो
नेमीशो हरिवंशशैलतिलको द्वाविंशसंख्यो जिनः ॥१५१॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती महोपवासविधिवर्णनो नाम
चतुस्त्रिशः सर्गः ॥३०॥
इस प्रकार तीनों लोकोंके आसनोंको कम्पित करने में समर्थ तीर्थंकर प्रकृतिनामक महापुण्य प्रकृतिके बन्ध करनेवाले सुप्रतिष्ठ मुनिराजने, एक मासके आहारका त्याग कर दिया तथा विशुद्ध बुद्धिके धारक हो विद्वज्जनोंके द्वारा स्तुत चार प्रकारकी आराधनाओंकी अच्छी तरह आराधना को जिससे बाईस सागरको स्थितिके धारक हो विशाल सुखसे युक्त जयन्त स्वर्ग ( जयन्त नामक अनुत्तर विमान ) में उत्पन्न हुए ॥१५०॥ अब जिन्होंने तोन सम्यग् ज्ञानरूपी नेत्रोंसे तीन लोकके पदार्थोंकी स्थितिको देख लिया है ऐसे सुप्रतिष्ठ मुनिराज, जयन्त विमानमें अहमिन्द्रोंके योग्य, संसारके सारभूत अनुपम सुखका उपभोग कर वहाँसे च्युत होंगे और राजा समुद्रविजयकी शिवा देवीसे हरिवंशरूपी पर्वतके तिलकस्वरूप नेमोश्वर नामके कल्याणकारी बाईसवें तं होंगे ॥१५१॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें महोपवास
विधिका वर्णन करनेवाला चौंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३४॥
१. सक्त-म., ख.। २. स्थितः म.। ३. मुक्त्वा म.। ४. त्रैलोक्यनेत्र म.।
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